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दशकरण चर्चा
आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (उदयकरण) अ. ३ यहाँ इस परिभाषा में महत्त्वपूर्ण कथन यह है कि फल देकर या
है और जबतक सम्यक्त्वादि धर्मरूप परिणाम नहीं होंगे, तबतक होती बिना फल दिये बिना ही।
ही रहेंगी। बद्ध कर्म की चर्चा करते समय सामान्यतः यह बात होती है कि जो
दूसरी अविपाक निर्जरा है, उसका स्वरूप भी भावदीपिका में निम्न कर्म एक बार जीव के साथ बंध गया तो वह फल दिये बिना नहीं
शब्दों में कहा है - "जो जीव सम्यक्त्व-चारित्रादि विशुद्धभावों रूप जाता। कर्म बंध गया तो वह फल तो देगा ही।
परिणमे, वहाँ एक-एक समय में असंख्यात-असंख्यात निषेक उदय में ___ कर्म के स्वरूप में और एक दूसरी बात है कि कर्मबंध हो गया तो
आकर, बिना फल दिये ही प्रदेश उदय होकर खिरते हैं, उसको अविपाक उसका तो उदय आयेगा ही। उदय आये बिना कर्म को जीव से अलग
निर्जरा कहते हैं।" होने का अन्य कोई मार्ग/उपाय है नहीं।
- इस परिभाषा के कारण यह तो सिद्ध हो ही गया कि कर्म, फल यह जो अभी ऊपर दूसरी बात कही गयी है वह तो सत्य ही है कि
दिये बिना भी जीव से अलग होता है - निर्जरित होता है। प्रत्येक जिस कर्म का एक बार जीव के साथ एकक्षेत्रवगाहरूप बंध हो गया वह
बद्धकर्म का फल भोगना जीव को अनिवार्य नहीं है। किसी न किसी समय अर्थात् स्थितिबंध की अर्थात् उस कर्म की जीव
१०. प्रश्न :- कर्म का उदय आयेगा तो वह तो फल देगा ही के साथ रहनेरूप काल मर्यादा पूर्ण होने पर कर्म जीव से अलग तो
देगा। फल दिये बिना कर्म जाता है - यह विषय हमारे मानस को होगा ही। ऐसा ही कर्म शास्त्र को स्वीकार है। अस्तु ।
स्वीकार नहीं हो रहा है। हमें शास्त्राधार से स्पष्ट समझाइए? कर्म के जीव से अलग होने के दो प्रकार हैं। एक प्रकार तो यह है
उत्तर :- पण्डित दीपचन्दजी कासलीवाल कृत भावदीपिका का कि कर्म जीव के साथ रहने की कालमर्यादा पूर्ण हो जाने पर फल देते
ऊपर का उद्धरण शास्त्र का ही तो दिया है। हुए निकल जाना, जिसे शास्त्र में सविपाक निर्जरा कहते हैं। कर्म का
११. प्रश्न :- भावदीपिका से भी प्राचीन ग्रंथ का अर्थात् आचार्य निकल जानेरूप कार्य तो हो गया; लेकिन उस कर्म ने पीछे नये कर्म का
के कथन को बताइए तो अधिक अच्छा रहेगा? बंध करके अर्थात् अपने उदयकाल में जीव को फल देकर खिर गया।
उत्तर :- गृहस्थ विद्वान द्वारा रचित शास्त्र की प्रामाणिकता में कुछ इसलिए इस तरह कर्मफल देकर जो कर्म जाता है उसे ही शास्त्र में
कमी देखना और आचार्य कृत शास्त्र की प्रामाणिकता में कुछ विशेषता सविपाक निर्जरा कहा है। उसी को इसी भावदीपिका ग्रन्थ में निम्नप्रकार
मानना उचित नहीं लगता; तथापि आपने प्रश्न किया है तो उत्तर देने बताया है
का प्रयास करते हैं। आचार्य जयसेन ने प्रवचनसार शास्त्र में गाथा ४५ "एक-एक समय में एक-एक निषेक अपना-अपना फल देकर
की संस्कृत टीका में स्पष्ट लिखा है - उदय को प्राप्त होता है और फल देकर खिर जाता है, उसी को सविपाक
___ द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न निर्जरा कहते हैं।"
परिणमति तदा बंधो न भवति। यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बंधो भवति तर्हि यह जो सविपाक निर्जरा है, वह धर्म के क्षेत्र में कुछ उपयोगी नहीं
संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात् सर्वदैव बंध एव न मोक्ष इति है। ऐसी निर्जरा तो सभी अनन्त संसारी जीवों को अनादि से हो ही रही "
सीamanju Adhyatmik Tatkanan Book अभिप्रायः।
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imalak sD.Kailabita