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दशकरण चर्चा
औदयिक भाव दोनों का समय एक है; यह जैन आगम का कथन है । फिर दोनों का समय एक ही है तो कर्म के उदय ने जीव के भावों को उत्पन्न किये; यह बात बन ही नहीं सकती ?
हाँ, कर्म का उदय और जीव के भावों में निमित्तनैमित्तिक संबंध है - दोनों में काल प्रत्यासत्तिरूप बाह्यव्याप्ति है। दोनों का अर्थात् कर्म का उदय एवं औदयिक भाव का काल / समय एक है। इसलिए किसी एक कर्म ने किसी एक जीव के विकार का कार्य किया है, यह बात ही सिद्ध नहीं हो सकती ।
अर्थात् कर्म के उदय ने जीव के भाव किए, यह बात सिद्ध नहीं होती। इसलिए कर्म बलवान है, जीव बलहीन है; यह कथन कथनमात्र ही है, वास्तविकता नहीं ।
इसलिए कर्म बलवान है, यह बात आगम को / वस्तुस्वरूप को मान्य नहीं ।
७. प्रश्न :- प्रथमानुयोग में कहानी के प्रसंग में अथवा करणानुयोग में कर्म के बलवानपने की बात आती है; मात्र आपके मना करने से क्या होता है?
उत्तर :- अनुपचरित या उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से अनेक जगह कर्मों को शास्त्रों में भी बलवान लिखा है। यहाँ नय के आधार से यथार्थ अर्थ करने एवं समझने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रसंग में मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र से मार्गदर्शन लेना अति महत्त्वपूर्ण है । वह निम्न प्रकार से है -
" निश्चयनय से जो निरूपण किया हो, उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अंगीकार करना और व्यवहारनय से जो निरूपण किया हैं; उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोड़ना । १
आगे पण्डित श्रीटोडरमलजी प्रश्नोत्तररूप में पाठकों को और विशेषरूप से समझाते हैं -
१. मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५०
आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (उदयकरण) अ. ३
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८. "प्रश्न- यहाँ प्रश्न है कि यदि ऐसा है तो जिनमार्ग में दोनों नयों का ग्रहण करना कहा है, सो कैसे?
उत्तर :- जिनमार्ग में कहीं तो निश्चयनय की मुख्यता लिए व्याख्यान है, उसे तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है' ऐसा जानना । तथा कहीं व्यवहारनय की मुख्यता लिए व्याख्यान है, उसे 'ऐसे है नहीं, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है' ऐसा जानना ।
इसप्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है। तथा दोनों नयों के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर 'ऐसे भी है, ऐसे भी है' इसप्रकार भ्रमरूप प्रवर्तने से दोनों नयों का ग्रहण करना नहीं कहा है। "? आचार्य अमितगति ने भी योगसारप्राभृत ग्रन्थ में श्लोक क्रमांक ५०५ में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा है कि
"न कर्म हन्ति जीवस्य न जीवः कर्मणो गुणान् । वध्य - घातक भावोऽस्ति नान्योऽन्यं जीवकर्मणोः ।। सरलार्थ :- ज्ञानावरणादि कर्म जीव के ज्ञानादि गुणों का घात / नाश नहीं करते और जीव कर्मरूप पुद्गल के स्पर्शादि गुणों का घात नहीं करता । ज्ञातास्वभावी जीव और स्पर्शादि गुणमय कर्म - इन दोनों का परस्पर एक दूसरे के साथ वध्य घातक भाव नहीं है - अर्थात् दोनों स्वतंत्र हैं। एक दूसरे के घातक नहीं है।"
मोक्षमार्गप्रकाशक एवं योगसारप्राभृत के उद्धरण से हमें स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कर्म बलवान नहीं है, जीव बलहीन नहीं है। दोनों अपने-अपने में पूर्ण स्वतंत्र और स्वाधीन हैं।
परस्पर निमित्त - नैमित्तिक संबंध रहना बात अलग है। अज्ञानी को निमित्त नैमित्तिक संबंध में कर्त्ता कर्म संबंध भासित होता है, वह उनका घोर एवं दुःखदायक अज्ञान है।
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Aasmanji Adhyainik Dukaran Bo१. मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५१
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