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________________ ६२ दशकरण चर्चा समयसार ग्रन्थ में कर्म एवं जीव दोनों अपने-अपने में स्वतंत्र परिणमते हैं, ऐसा कथन अनेक जगह आया है। यहाँ हम मात्र उनका उल्लेख कर रहे हैं । जिज्ञासु उन प्रकरणों को देखकर अपना ज्ञानश्रद्धान यथार्थ करे । जीव एवं पुद्गल दोनों अपना-अपना परिणमन करने में स्वतंत्र हैं- समयसार कलश 64,65 | गाथा 173 से 176 तथा इन गाथाओं की टीका एवं पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा का भावार्थ समयसार कलश क्रमांक 210, 219, 220 2211 प्रवचनसार गाथा 101 एवं उनकी टीका । भाव शक्ति-अभाव शक्ति । द्रव्यत्व नामक सामान्य गुण । आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के प्रवचन में एक वाक्य अनेक बार आता है, उसके आधार से भी हम कुछ सोच सकते हैं। वाक्य इसप्रकार 'कर्म के उदय से होनेवाला औदयिक परिणाम कर्म के उदय के बिना होता है।' इस एक ही वाक्य में किया गया कथन परस्पर विरोधी है। वाक्य के पूर्वार्द्ध में कहा - 'कर्म के उदय से होनेवाला औदयिक परिणाम', वाक्य के अन्तिम विभाग में कहते हैं- 'वह औदयिक परिणाम कर्म के उदय के बिना होता है।' इसका मर्म यह है - निमित्त की मुख्यता से जब कथन करना हो तो यही कथन करना आवश्यक है कि 'कर्म के उदय से औदयिक परिणाम होता है।' - जब औदयिक परिणाम संसारी जीव का परिणाम है, कर्म का नहीं; इसतरह उपादान की मुख्यता से कथन करना हो तो कर्म के उदय की अपेक्षा रखे बिना जीव उस परिणाम का कर्ता है, यह समझना आवश्यक है । इस पद्धति का अवलंबन लेकर हम निम्न प्रकार वाक्य भी बना सकते हैं - 3D Kailash Data Annanji Adhyatmik Duskaran Book (33) आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (उदयकरण) अ. ३ ६३ १. कर्म के उपशम से होनेवाला औपशमिक भाव कर्म के उपशम होने पर ही अर्थात् उपशम के समय ही होता है; तथापि उपशम से नहीं होता । २. कर्म के क्षय से होनेवाला क्षायिक भाव कर्म के क्षय के होने पर ही अर्थात् क्षय के काल में ही होता है; तथापि कर्म के क्षय से नहीं होता । ३. कर्म के क्षयोपशम से होनेवाला जीव का क्षायोपशमिक भाव कर्म के क्षयोपशम के होने पर ही अर्थात् कर्म के क्षयोपशम के समय ही होता है; तथापि कर्म के क्षयोपशम से नहीं होता । इसकारण आचार्य वीरसेन ने औपशमिकादि पाँचों भावों को पारिणामिक भाव कहा है।" संक्षेप में मुख्यरूप से हमें यहाँ एक ही विषय बताना है कि कर्म विकारों में अथवा संयोगों में मात्र निमित्त है, वह कर्म जीव के विकारों को अथवा जीवादि द्रव्यों के संयोगों को बलजोरी से परिवर्तित नहीं करता । जब क्रोधादि विभाव / विकार भाव होते हैं अथवा जीव के साथ अन्य जीवादि द्रव्यों का संयोग होता है, उसमें कर्म का उदय निमित्त मात्र होता है। एक द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का अथवा एक समयवर्ती एक पर्याय किसी अन्य पर्याय का कुछ भी नहीं कर सकती; यह जिनधर्म के वस्तुव्यवस्था का मूल प्राण है। इस महा सिद्धान्त को छोड़ने का अर्थ जिनधर्म ही छोड़ना है । मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३११ पर ग्रन्थकार तत्त्वनिर्णय करनेरूप पुरुषार्थ से मोक्ष का उपाय प्रगट होता है; इस विषय को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - १. जयधवला भाग-१, पृ. ३१९, धवला भाग-५, पृ. १९७
SR No.009441
Book TitleAdhyatmik Daskaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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