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दशकरण चर्चा
हैं, सूर्योदय का निमित्त पाकर स्वयं ही मिलते हैं और सूर्यास्त का निमित्त पाकर स्वयं ही बिछुड़ते हैं। ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक बन रहा है। उस ही प्रकार का कर्म का भी निमित्त - नैमित्तिक भाव जानना । इसप्रकार कर्म के उदय से अवस्था है। "
कर्म के बलवानपने का निषेध करने वाला मोक्षमार्गप्रकाशक का अंश पृष्ठ ३१०, ३११ व ३१२ का भाग अति उपयोगी होने से आगे हम दे रहे हैं -
३. “फिर प्रश्न कि भ्रम का भी तो कारण कर्म ही है, पुरुषार्थ क्या करें?
उत्तर :- सच्चे उपदेश से निर्णय करने पर भ्रम दूर होता है; परन्तु ऐसा पुरुषार्थ नहीं करता, इसी से भ्रम रहता है। निर्णय करने का पुरुषार्थ करे - तो भ्रम का कारण जो मोहकर्म, उसके भी उपशमादि हों तब भ्रम दूर हो जाये; क्योंकि निर्णय करते हुए परिणामों की विशुद्धता होती है, उससे मोह के स्थिति- अनुभाग घटते हैं।
४. फिर प्रश्न है कि निर्णय करने में उपयोग नहीं लगाता, उसका भी तो कारण कर्म है ?
समाधान :- एकेन्द्रियादिक के विचार करने की शक्ति नहीं है, उनके तो कर्म ही का कारण है। इसके तो ज्ञानावरणादिक के क्षयोपशम से निर्णय करने की शक्ति हुई है, जहाँ उपयोग लगाये, उसी का निर्णय हो सकता है। परन्तु यह अन्य निर्णय करने में उपयोग लगाता है, यहाँ उपयोग नहीं लगाता। सो यह तो इसी का दोष है, कर्म का तो कुछ प्रयोजन नहीं है।
५. फिर प्रश्न है कि सम्यक्त्व - चारित्र का घातक मोह है, उसका अभाव हुए बिना मोक्ष का उपाय कैसे बने ?
उत्तर :- तत्त्वनिर्णय करने में उपयोग न लगाये वह तो इसी का
१. मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५
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आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (उदयकरण) अ. ३
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दोष है। तथा पुरुषार्थ से तत्त्वनिर्णय में उपयोग लगाये तब स्वयमेव ही मोह का अभाव होने पर सम्यक्त्वादिरूप मोक्ष के उपाय का पुरुषार्थ बनता है।
इसलिये मुख्यता से तत्त्वनिर्णय में उपयोग लगाने का पुरुषार्थ करना । तथा उपदेश भी देते हैं, सो यही पुरुषार्थ कराने के अर्थ दिया जाता है, तथा इस पुरुषार्थ से मोक्ष के उपाय का पुरुषार्थ अपने आप सिद्ध होगा ।
तत्त्वनिर्णय न करने में किसी कर्म का दोष है नहीं, तेरा ही दोष हैं; परन्तु तू स्वयं तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिक को लगाता है; सो जिन-आज्ञा माने तो ऐसी अनीति सम्भव नहीं है।
तुझे विषयकषायरूप ही रहना है, इसलिये झूठ बोलता है। मोक्ष की सच्ची अभिलाषा हो तो ऐसी युक्ति किसलिये बनाये ? सांसारिक कार्यों में अपने पुरुषार्थ से सिद्धि न होती जाने, तथापि पुरुषार्थ से उद्यम किया करता है, यहाँ पुरुषार्थ खो बैठा; इसलिए जानते हैं कि मोक्ष को देखादेखी उत्कृष्ट कहता है; उसका स्वरूप पहिचानकर उसे हितरूप नहीं जानता । हित जानकर उसका उद्यम बने सो न करे यह असंभव है।" हम भी तर्क के आधार से कर्म और जीव के संबंध में कुछ विचार करते हैं।
६. प्रश्न :- कर्म के उदय का समय एवं औदयिक भाव- इन दोनों का समय / काल एक ही है अथवा भिन्न-भिन्न है; इस विषय को लेकर भी हमें थोड़ा यहाँ सूक्ष्मता से विचार बताइए ।
जैसे क्रोध कषाय का उदय पहले समय में आता है और क्रोध भाव दूसरे समय में होता है; क्या ऐसा है?
अथवा पहले क्रोधभाव उत्पन्न होता है और दूसरे समय में क्रोध कषाय कर्म का उदय आता है; क्या ऐसा है?
अथवा क्रोध कषाय का उदय और जीव में उत्पन्न होने वाला क्रोध
भाव - दोनों का समय एक है; क्या ऐसा है?
उत्तर :- तीनों में से तीसरा प्रकार अर्थात् कर्म का उदय और