SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशकरण चर्चा आगमगर्भित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (सत्त्वकरण) अ.२ उत्तर :- अरे भाई! तुम्हें पाप-पुण्य से रहित होकर भगवान बनने उत्तर :- सत्त्व स्वयं (उदय के बिना) कभी फलरूप नहीं होता; की भावना है अथवा पुण्य का फल भोगने की दुर्वासना है। इसका अर्थ - जो सत्त्वकरण में पड़ा हुआ कर्म है, वह फल नहीं दे __ पुण्य का फल भोगना भी आकुलतामय है; यह विषय आपको सकता । यदि जीव के साथ जिन कर्मों का अस्तित्व बना हुआ है, वे कर्म अभी तक समझ में नहीं आया हो तो तत्त्वाभ्यास करो। फल देंगे तो जीवन में अनेक प्रकार की आपत्तियाँ आयेंगी। जैसे - अनादिकालीन संसार में अनंत बार ऐसे प्रसंग बने हैं, जिस कारण १. तीर्थंकर प्रकृति की सत्तासहित असंख्यात जीव हमेशा ही से किए हुए पुण्य का फल नहीं मिला । पुण्य कर्म उदय में आने के पहले देवगति में रहते हैं। यदि देवगति में तीर्थंकर प्रकृति का उदय आना ही पाप में परिवर्तित हो गया है। अतः पुण्य के फल भोगने की भावना प्रारंभ होगा तो असंयमी को तीर्थंकर मानना पड़ेगा। स्वर्ग के वैभव के उचित नहीं है। साथ तीर्थंकर प्रकृति के उदय से प्राप्त समवशरण, दिव्यध्वनि का उपदेश, ३. प्रश्न : स्वयं किए हुए पाप कर्म का फल नहीं मिलता; ऐसा उनके भगवानपने का व्यवहार आदि कैसे हो पायेगा? इसलिए कर्म की निर्णय होने से जीव स्वच्छंद तो नहीं होंगे? सत्ता कभी उदयरूप कार्य नहीं करेगी। उत्तर :- उपर्युक्त कर्म का स्वरूप जानने से ज्ञानी जीव कर्म का २. नरकगति में असंख्यात नारकी जीवों को तीर्थंकर प्रकृति की मात्र ज्ञाता होता है। अतः जगत की ओर देखने की दृष्टि ही बदल सत्ता रहती है। वहाँ सभी मारते-पीटते हैं। इसलिए वहाँ तीर्थंकर जाती है। इस कारण पात्र जीव को अनावश्यक शंका ही नहीं होती प्रकृति के उदय का कार्य सम्भव नहीं है। और जीव स्वच्छन्द भी नहीं होता। ३. जिस मनुष्य भव में जो जीव तीर्थंकर होनेवाले हैं, वे जब भाई! आपको आत्मसन्मुख होने का परिणाम आवश्यक है। गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हैं तो उनके साथ सामान्य मनुष्य का तीर्थंकर अनावश्यक विषयों में क्यों फंस रहे हो? वीतराग जिनधर्म के क्षेत्र में जैसा व्यवहार कैसे होगा? वे समवशरण में विराजमान रहेंगे या गृहस्थ आने पर जीव को मात्र स्वकल्याण को ही मुख्य रखना चाहिए। व्यवहार के कार्यों में? वे भोजनपानी, राज्य कारोबार करते रहेंगे तो उस कदाचित् भूमिकानुसार दूसरे के कल्याण की भावना हो भी जाए समय तीर्थंकर प्रकृति का उदय कैसे सम्भव होगा? तो भी उसको हेय जानकर-मानकर उसके प्रति उपेक्षा भाव ही चाहिए। सत्त्वरूप स्थिति का काल समाप्त होने के बाद ही अर्थात् कर्म का कर्म बलवान नहीं है, जीव ही बलवान है; ऐसा हमें पक्का निर्णय उदय काल आने पर जीव को कर्म का फल प्राप्त होता है। होना आवश्यक है; क्योंकि जीव के परिणाम के अनुसार कर्मों में हमेशा ४. तीर्थंकर भावलिंगी मुनि अवस्था को धारण करेंगे तो उनके परिवर्तन होता ही रहता है। साथ क्या मुनि जैसा व्यवहार रहेगा अथवा तीर्थंकर भगवान जैसा? ४. प्रश्न :- 'सत्त्व स्वयं कभी फलरूप नहीं होता।' इसका अतः सत्त्वरूप कर्म का सत्त्वरूप अवस्था में ही उदय नहीं आयेगा। अभिप्राय क्या है? Mamadhoom 4 ५. वायुकायिक एवं तेजकायिक जैसी निकृष्ट तिर्यंच पर्याय में
SR No.009441
Book TitleAdhyatmik Daskaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy