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दशकरण चर्चा
२३. जब तक मिथ्यात्व का उदय है, तब तक नवीन मिथ्यात्व कर्म का बंध होता है। मिथ्यात्व के उदय के बिना मिथ्यात्व कर्म का बंध नहीं होता ।
२४. दसवें गुणस्थान में सूक्ष्मलोभ का उदय है, सूक्ष्मलोभरूप परिणाम है; तथापि नया सूक्ष्मलोभ का बंध नहीं होता। ज्ञानावरणादि तीन घातिकर्मों का बंध होता है।
२५. देव, देवायु एवं नरकायु का बंध नहीं करते। नारकी, नरकायुव देवायु का बन्ध नहीं करते ।
२६. साता के उदय में असाता का एवं असाता के उदय में साता वेदनीय कर्म का बंध संभव है; क्योंकि ये दोनों प्रतिपक्षी हैं। २७. आनतादि देवों में मनुष्यगति का ही निरंतर बंध होता है; क्योंकि वे नियम से अगले भव में मनुष्य ही होते हैं। (ध. ६ गत्यागति चूलिका) २८. ईशान स्वर्ग से लेकर नीचे के (भवनत्रिक) सकल देव एकेन्द्रिय जाति का भी बंध कर सकते हैं।
२९. तीसरे आदि स्वर्गों के देव पंचेन्द्रिय जाति का ही बंध करते हैं। ३०. बारहवें स्वर्ग तक के देव संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच का बंध कर सकते हैं।
३१. बंध अवस्था को प्राप्त कर्म (उदय के बिना सत्ता में स्थित कर्म ) फल नहीं देता ।
३३. प्रश्न जिनागम में बंधरूप करण का वर्णन अधिक क्यों है? १. कर्म का बंध होने के बाद ही अन्य करणों की चर्चा शक्य है;
इसलिए इस अपेक्षा से कर्म का बंधकरण सभी करणों का मूल है। २. जिनागम में बंध का वर्णन बहुत हैं; क्योंकि संसारी जीव को बंध अनादि से है।
३. खुदाबंध एवं बंध स्वामित्व विचय ये दो खण्ड, बंध की ही प्ररूपणा करते हैं।
3D Kala Antanji Adhyatmik Duskaran Book
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अधिकार दूसरा
- सत्त्वकरण
आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्नोत्तर विभाग में जो विषय आयेगा, उसका विशद ज्ञान हो, इस अभिप्राय से हमने अनेक प्रश्नोत्तर के सहारे से सत्ताकरण की चर्चा करने का प्रयास किया है।
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१९. प्रश्न सत्ता-सत्त्वकरण में स्थित कर्मों में भी जीव के परिणामों के निमित्त से परिवर्तन होता है; इससे हमें क्या बोध मिलता है?
उत्तर :- मुख्य बोध तो यही मिलता है कि कर्म का बंध हो जाने पर भी उसका फल उसी रूप में भोगना अनिवार्य नहीं; क्योंकि पूर्वबद्ध कर्म का उदय आने के पहले ही सत्त्व में स्थित कर्म का अनुभाग व स्थिति हीनाधिक हो सकती है अथवा बदल भी सकती है। जैसेपुण्य का पापरूप होना / मतिज्ञानावरण का श्रुतज्ञानावरणरूप होना ।
यदि ऐसी व्यवस्था नहीं होती तो मधुराजा जैसे लोगों ने अपने मनुष्य भव में अर्थात् राजा की अवस्था में, पर राजा की रानी का अपहरण करने जैसा अत्यन्त घृणित पाप कार्य किया था । वही राजा का जीव अपने भावी भव में मुनि बनकर सिद्ध भगवान कैसे हो सकता था ? प्रथमानुयोग शास्त्र में ऐसे / ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं।
२. प्रश्न: किए हुए पाप का फल मिलना अनिवार्य नहीं रहेगा तो किए हुए पुण्यकर्म का फल भी नहीं मिलेगा ? - किया हुआ पुण्य व्यर्थ चला जायेगा - तो क्या करें?