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दशकरण चर्चा
आगमगर्भित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (सत्त्वकरण) अ.२ आहारक-शरीर नामकर्म की सत्ता होने से उन एकेन्द्रिय जीवों को
करने का काल अलग और उसका फल मिलने का काल अलग है। विदेहगमन का प्रसंग प्राप्त होगा।
पुण्य-पाप करते समय कर्म का बंध होता है और हजारों-लाखों ६. सत्तारूप कर्म भी फल देते रहेंगे और उदयरूप कर्म तो फल
आदि वर्ष बीत चुकने के बाद इस कृत पुण्य-पाप का फल मिलता है। देंगे ही तो जिसे फल मिलनेवाला है, उस जीव की अवस्था कैसी
बीच के काल में कर्म का जो अस्तित्व जीव के साथ रहता है, उसे ही बनेगी? यह तो मात्र कल्पनागम्य ही है।
सत्ता कहते हैं। इसतरह कर्म की सत्ता सिद्ध हो ही जाती है। ७. यदि सत्त्वरूप सर्व कर्म ने जीव को एक समय में ही सर्व फल
___ कदाचित किसी को कर्मबंध होने के बाद अंतर्मुहुर्त काल के भीतर दिया तो अगले समय में जीव आठों कर्मों से रहित हो जायेगा। इसलिए
भी फल मिल सकता है। सत्तारूप कर्म सत्ता में ही रहते हुए कभी भी फल नहीं देगा।
सत्ता (सत्त्व) करण संबंधी ब्र. जिनेन्द्र वर्णीजी के विचार निम्नानुसार कर्म की सत्ता तो कारण है और उदयकरण कार्य है। इसलिए उदयकरणरूप कर्म उदय का फल देगा, ऐसा जानना-मानना चाहिए। सत्त्वरूप कर्म उदयरूप नहीं हो सकता; क्योंकि जो कारण है, उसे कार्य
"सत्ता कर्मबन्ध की द्वितीय अवस्था है। सत्ता का अर्थ अस्तित्व या
विद्यमानता (मौजूदगी) है। कर्मबन्ध से फलप्राप्ति के बीच की अवस्था नहीं कह सकते।
सत्ता कहलाती है। इसका फलितार्थ है - पूर्व-संचित कर्म का आत्मा में ८. बंधकरण के चर्चात्मक प्रश्नोत्तर में बंध अवस्था को प्राप्त कर्म
अवस्थित रहना 'सत्ता' है। सत्ता जीव के लिए बाधक नहीं होती; क्योंकि फल नहीं दे सकता' इसका विवेचन करते समय जो बताया है. उसे भी
उदय में आए बिना उसका कोई फल नहीं मिलता। अतः सुख-दुःख का यहाँ समझ लेना उपयोगी होगा।
कारण उदय है, सत्ता नहीं। ५. प्रश्न :- सत्त्वकरण को नहीं मानेंगे तो क्या आपत्तियाँ आयेंगी?
जैसे शराब पीते ही वह तुरन्त अपना असर नहीं करती, किन्तु कुछ उत्तर :- १. बंधकरण के कार्य को नहीं मानने की आपत्ति आयेगी।
देर बाद ही असर करती है। बंधकरण कारण है और सत्त्वकरण कार्य है। कार्य को न मानने से ज्ञान
___पैसा खजाने में पड़ा रहता है, वैसे ही कर्म भी आत्मा के खजाने में की समीचीनता में बाधा उत्पन्न होगी।
पड़ा रहता है, इसी का नाम सत्ता है।" २. यदि सत्ता न हो तो उदयरूप करण का अभाव हो जायेगा। यदि कर्म की सत्ता न हो तो कर्म की सत्ता में से ही उदयरूप कार्य बनता है, वह कार्य नहीं हो सकेगा।
३. जिस कर्म का बंध होता है, उसका तत्काल फल जीव को मिलता नहीं। हजारों-लाखों अर्थात् अनेक जन्म के पहले किए हुए पुण्य-पाप का फल वर्तमान काल में जीव को मिलता है; यह विषय हम प्रथमानुयोग के शास्त्रों में पढ़ते हैं। इसका अर्थ पुण्य-पापरूप कर्म "
राई anarjedaras bharan kert२. (क) कर्मरहस्य (ब्र. जिनेन्द्रवर्णी) से भावग्रहण, पृ. १६७, १६८
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