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________________ असन्तोष की जड़ ] तुम्हें क्या अधिकार था? बताओ... बताओ। चुप क्यों हो? ... है कोई उत्तर तुम्हारे पास ?" हताश हो अन्त में जब मेरे मुँह से निकला - "क्या अब यह गृहस्थ जीवन आप कतई पसन्द न करेंगे?" "नहीं, बिल्कुल नहीं; ऐसे नासमझ साथी के साथ तो कतई नहीं; जो देवी न सही, पर सही अर्थों में मानवी भी न हो, एकदम पशुता पर उतर आये; जिसे दूसरे की न सही, अपने जीवन की भी परवाह न हो, नरकनिगोद का भी भय न हो।" "हाँ मेरे नाथ! अंधकार से निकाला तो क्या अब प्रकाश न दिखाओगे?" आगे मैं कुछ न कह सकी, और सुना भी मात्र इतना ही - "अब मैं चला।" जब मुझे चेत आया तो सोच रही थी कि जो देवता मेरे इतने निकट रहा, उससे मैं कुछ न पा सकी; दुनिया जिसे सर्वयोग्य, सन्मार्गदर्शक मानती रही; उसे मैं अपने लायक भी न समझ सकी। दुनिया जिनके चरणों की छाया में रहना चाहती है, मैं उन्हें पाकर भी छोड़ने को तत्पर हो गई; हो क्या गई, मैंने उन्हें छोड़ ही तो दिया। री बहिन ! वे बातें मुझे आज बार-बार याद आती हैं, जब वे कहा करते थे कि आदमी चाहे जितना बड़ा हो जावे, देवता भी क्यों न हो जावे, दुनिया उसके चरण चूमे; पर पत्नी को उसमें कुछ न कुछ कमी नजर आती ही रहती है। सच्चे दिल से वह उसे अपने योग्य स्वीकार नहीं कर पाती। वह अपनी कल्पना में पति की एक ऐसी काल्पनिक मूर्ति गढ़ लेती है कि जिसकी कसौटी पर आज तक कोई पति खरा नहीं उतर पाया। उसकी यह असंभव कल्पना ही असन्तोष की जड़ है। री बहिन ! मैं अभी तक समझती थी कि सद्बुद्धि जब आ जावे, तभी अच्छी; पर वह सद्बुद्धि भी किस काम की, जो समय रहते न आवे; क्योंकि 'फिर पछताये होय क्या, जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत'।
SR No.009439
Book TitleAap Kuch Bhi Kaho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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