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________________ ८४ [ आप कुछ भी कहो यह सुनना था कि मेरी चिन्तनधारा ही बदल गई। गद्गद हो ज्यों ही मैं उनके चरणों की ओर बढ़ी कि वे एकदम पीछे हट गये। बहुत दूर हटकर वे कह रहे थे - __ "तुम मेरे लिए मर चुकी हो और मैं तुम्हारे लिए। मैं भी इस झंझट से विरक्त ही था, पर सब सहज चल रहा था सो चल रहा था, आज तुमने मुझसे मुक्त होने की पहलकर मुझे भी सहज ही मुक्त कर दिया है। इतने दिनों के सम्बन्ध के रागवश तुम्हें भी वही मार्ग सुझाने आया हूँ, जो मैंने चुना है। वैसे अब तुम स्वतंत्र हो; जो चाहो, वही मार्ग चुन सकती हो।" अरी बहिन ! तुझे क्या लिखू ? कितना लिखू ? मैंने उन्हें कितना मनाया - यह मैं ही जानती हूँ, पर उन पर तो कोई असर ही नहीं हुआ। वे तो जैसे पत्थर हो गये थे। मैंने बार-बार कहा - "एकबार क्षमा कर दो, अब ऐसी गलती कभी न होगी। अब घर चलो, आनन्द से रहेंगे, प्रेम से रहेंगे।" पर वे शान्तभाव से कह रहे थे - "आनन्द ! आनन्द !! उसे तुम अब भी आनन्द कहती हो, जिससे त्रस्त होकर तुम कुए में गिरने आई थीं, जिससे छूटने के लिए तुम मछली जैसी छटपटा रही थीं। __जरा विचार तो करो, जिस दरवाजे से हम निकल आये; अब उसमें दुबारा प्रवेश कैसे कर सकते हैं ? अब वह जीवन असम्भव है, असम्भव।" अब मेरी हालत देखने लायक थी। डरते-डरते अस्फुट शब्दों में मैंने कहा - ___ "नाथ! एकबार आप ही ने तो कहा था कि तुम्हारे गरोर पर मेरा अधिकार है और मेरे पर तुम्हारा।" ___ "कहा होगा, मैंने तो बहुत बार बहुत-बहुत कहा, पर तुमने उस पर कब ध्यान दिया ? इस समझौते को भंग करने में भी तो तुमने ही पहल की। जब तुम अपने शरीर पर मेरा अधिकार मानती थीं तो उसे इस तरह नष्ट करने का
SR No.009439
Book TitleAap Kuch Bhi Kaho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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