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गाँठ खोल देखी नहीं ]
___ "जाने भी दो इन बातों को, क्या रखा है इन बातों में? बुद्धिमता और अनुभव का कमाई से कोई सम्बन्ध नहीं है। कमाना और गमाना तो पुण्यपाप के खेल हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो तुम्हीं बताओ जब मैं अपने गाँव से जयपुर आया था, तब लोटा-डोर लेकर आया था। क्या था मेरे पास उस समय? न घर, न द्वार, न पूँजी, न अनुभव । बुद्धि का विकास भी तो इतना नहीं था, जितना अब है; पर उस समय जहाँ हाथ डाला, सफलता ही मिली। उस समय मिट्टी को यदि छू देता तो वह सोना बन जाती, पर आज सोने को छूता हूँ तो मिट्टी बन जाता है । कहाँ गई चतुराई और अनुभव ? अनुभवहीन अनाड़ी ने जो कुछ कमाया था, चतुर अनुभवी ने वह सब-कुछ देखते ही देखते गँवा दिया है। अब मेरे पास मात्र ये दो लाल बचे हैं, जिन्हें सौंपकर शान्ति से मरना चाहता हूँ।"
घबराती हुई सेठानी बोली - "क्या आपकी दृष्टि सचमुच विकृत हो गई है। एक को बराबर दो बताये जा रहे हो।"
सेठानी बहुत ही घबरा गई थी; क्योंकि उसने सुन रखा था कि मृत्यु समीप आने पर दृष्टि विकृत हो जाती है, एक के दो और दो के चार दिखने लगते हैं।
सेठजी की न तो दृष्टि ही विकृत हुई थी और न बुद्धि ही; पर वे अन्तिम साँसें अवश्य गिन रहे थे, उनकी अन्तिम घड़ी अवश्य आ गयी थी। ___ उन्होंने बुढ़ापे में उत्पन्न अपनी इकलौती सन्तान 'चेतनलाल' को बुलाया
और उसके माथे पर हाथ रखते हुए बोले - ___ "सुनो ! जब यह चेतनलाल बड़ा हो जावे, तब इसे यह अचेतन लाल सँभला देना। इसे व्यापार में पूँजी की कमी न पड़े - इस विचार से ही मैंने अपनी बची-खुची सम्पूर्ण सम्पत्ति बेचकर यह लाल खरीदा है। ध्यान रहे यह बहुत कीमती है। मैं समझता हूँ कि इससे प्राप्त पूँजी से यह अपना व्यापार बहुत अच्छी तरह चला लेगा। ध्यान रखना ...।" ___- कहते-कहते सेठजी सचमुच ही महाप्रयाण कर गये। उनकी वाणी अवरुद्ध हो गयी, गर्दन ढुलक गई, आँखें खुली की खुली रह गईं।