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________________ जरा-सा अविवेक ] तकलीफ नहीं हुई, मुझे भी दुःख तो हुआ ही, पर यह सब मनोगत ही रहा । इसके बिना तो ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती थीं कि जिनमें हम सबका जीवन भी दूभर हो जाता । अस्तु जो भी हो। " ५३ वे अपनी बात पूरी भी न कर पाये थे कि मानसिक संताप से अत्यन्त संतप्त सेठानी बिलखते हुए कहने लगी - "हे भगवान! मेरे जरा से अविवेक ने क्या अनर्थ कर डाला ? मैंने एक ज्ञानी की विराधना कर अनन्त ज्ञानियों की विराधना का महापाप तो किया ही, साथ में अपने पति की आन्तरिक शान्ति को भंगकर उनका जीना भी दूभर कर दिया । " - इसी तरह की बातें कुछ दिन यहाँ-वहाँ होतीं रहीं और फिर सब-कुछ सहज हो गया; पर पण्डितजी की उदासीनता उल्लास में परिवर्तित न हो सकी; सेठजी को उनके सहज समागम का पूर्ववत् लाभ फिर कभी संभव न हुआ। शरीर का घाव तो समय पाकर भर जाता है, पर मन के घाव का भरना सहज नहीं होता । इस दुनिया में आज न सेठजी हैं, न पण्डितजी; पर यह कहानी गाँव के बच्चे-बच्चे की जबान पर है और तबतक रहेगी, जबतक दादियाँ अपने पोतेपोतियों को कहानियाँ सुनाती रहेंगी। जोश और होश यह एक सर्वमान्य सत्य है कि युवकों में जोश और प्रौढ़ों में होश की प्रधानता होती है। युवकों में जितना जोश होता है, कुछ कर गुजरने की तमन्ना होती है; उतना अनुभव नहीं होता । इसीप्रकार प्रौढ़ों में जितना अनुभव होता है, उतना जोश नहीं होता । कोई भी कार्य सही और सफलता के साथ सम्पन्न करने के लिए जोश और होश- दोनों की ही आवश्यकता होती है । अतः देश व समाज को दोनों की ही आवश्यकता है। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं । 'जोश और होश' नामक निबन्ध से (E)
SR No.009439
Book TitleAap Kuch Bhi Kaho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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