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जागृत विवेक
(१) बात लगभग दो हजार वर्ष पुरानी है। गिरि गिरनार की गहरी गुफा में अन्तर्मग्न आचार्य धरसेन का ध्यान रात्रि के अन्तिम प्रहर में जब भग्न हुआ तो वे श्रुतपरम्परा की सुरक्षा में चिन्तामग्न हो गये। ___ वे सोचने लगे - "मैं अब बूढ़ा होता जा रहा हूँ; होता क्या जा रहा हूँ, हो ही गया हूँ; पर अभी तक कोई ऐसा पात्र शिष्य दिखाई नहीं दिया, जो गुरु परम्परा से प्राप्त भगवान महावीर की श्रुतपरम्परा को मुझसे पूर्णत: ग्रहण कर सके। लगता है बुद्धि की हीनता के कारण अब केवल श्रुत के आधार पर सिद्धान्त की सुरक्षा सम्भव नहीं है, अब उसे लिखितरूप से भी सुरक्षित किया जाना चाहिये; पर समझ में नहीं आता कि यह सब सम्भव कैसे होगा? क्योंकि अब मेरा जीवन ही कितना रहा है? यदि योग्य शिष्य मिल जावे तो उन्हें सबकुछ सिखाकर लिपिबद्ध करने का आदेश देकर निश्चिन्त हो जाऊँ। पर मेरे सोचने से क्या होता है? होगा तो वही, जो होना है।"
सोचते-सोचते वे कुछ निद्रित हुए तो स्वप्न में देखते हैं कि जवान, बलिष्ठ, कर्मठ, शुभ्र वृषभों का एक नम्रीभूत धुरन्धर युगल उनकी ओर चला आ रहा है; आ ही नहीं रहा, आ ही गया है और उनके पावन चरणों में नतमस्तक है।
वे एकदम जागृत हो गये। विकल्पों की निरर्थकता को गहराई से जाननेवाले आचार्यश्री को लगा कि यह स्वप्न तो मेरे विकल्प को सार्थक सूचित करता-सा प्रतीत होता है।