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[ आप कुछ भी कहो
(२)
ध्यानमग्न आचार्य धरसेन ने जब नासाग्र पलकों को ऊपर उठाया तो दो उत्साही युवा मुनिराजों को चरणों में नतमस्तक पाया। समागत मुनिराज विनम्र शब्दों में कह रहे थे - ___ "द्वितीय श्रुतस्कन्ध के विशेषज्ञ आचार्य श्री धरसेन के पवित्र चरणकमलों में सिद्धान्तामृत के पिपासु यतियों का बारम्बार वन्दन नमन स्वीकृत हो।" ___ अन्तर से मृदु एवं बाहर से कठोर आचार्य धरसेन कहने लगे -
"यदि पात्रता हो तो कुछ भी अलभ्य नहीं, पुरुषार्थियों की पिपासा तृप्त होती ही है; पर सब-कुछ अन्तर की लगन पर निर्भर करता है।"
आचार्यश्री के संकेत को अवधारण करते हुए वे बोले -
"लगन की कमी और पुरुषार्थ की उपेक्षा तो अन्तेवासियों से कभी होगी नहीं; पर पात्रता का निर्णय तो आचार्यश्री को ही करना होगा।"
"हमें तुमसे यही उत्तर अपेक्षित था।" "आचार्यश्री की कृपा के लिए अनुचर अनुगृहीत हैं।" दोनों को दो मंत्र देते हुए आचार्यश्री बोले -
"जाओ, सामने की चोटी पर स्थित गुफा में इन मंत्रों की आराधना करो। मंत्र सिद्ध होने पर सर्वाङ्गसुन्दर देवाङ्गनाओं के दर्शन होंगे।"
दोनों मुनिराज हतप्रभ हो गये। वे सोचने लगे -
"देवाङ्गनाओं के दर्शन ' हमें देवाङ्गनाओं से क्या लेना-देना ? आचार्यश्री ने हमें यह ..."
उनके अन्तर के मन्थन से परिचित आचार्यश्री बोले -
"विकल्पों में न उलझो, समय बर्बाद मत करो; जो कहा गया है, उसका पालन करो। जाओ, जाओ। ___ रुको, जरा रुको; एक बात ध्यान से सुन लो। यदि कोई शंका उत्पन्न हो तो मेरे पास दौड़े मत चले आना। तुम्हारा आत्मा ही तुम्हारा वास्तविक गुरु है' - इस महामंत्र को याद रखना। अब जाओ, देर न करो"