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[ आप कुछ भी कहो
आचार्य अकंपन और भी गम्भीर हो गये । उनके गम्भीर मौन को सम्मति का लक्षण जानकर श्रुतसागर उनके चरणों में झुके, नमोऽस्तु किया और मंगल आशीर्वाद की मौन याचना करने लगे ।
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आचार्य अकंपन ने काँपते हुए हाथ से श्रुतसागर को आशीर्वाद देते हुए कहा - " मैंने यह सोचा भी न था कि जिसे मैंने एक दिन सम्पूर्ण संघ के समक्ष 'श्रुतसागर' की उपाधि से अलंकृत किया था, उसे किसी दिन इतना कठोर प्रायश्चित्त देना होगा ।
प्रिय श्रुतसागर ! तुम ज्ञान की परीक्षा में तो अनेक बार उत्तीर्ण हुए हो, आज तुम्हारे ध्यान की परीक्षा है; जीवन का रहना न रहना तो क्रमबद्ध के अनुसार ही होगा, पर मैं तुम्हारे आत्मध्यान की स्थिरता की मंगल कामना करता हूँ। दूसरों को तो तुमने अनेक बार जीता है। जाओ, अब एक बार अपने को भी जीतो । "
कहते-कहते आचार्य अकंपन और भी अधिक गम्भीर हो गये । आज्ञा शिरोधार्य कर जाते हुए श्रुतसागर को वे तबतक देखते रहे, कि वे दृष्टि से ओझल न हो गये।
जबतक
कोई न कोई राजनीति होगी
किसी व्यक्ति का हृदय कितना ही पवित्र और विशाल क्यों न हो; किन्तु जबतक उसका कोई स्वरूप सामने नहीं आता, तबतक जगत उसकी पवित्रता और विशालता से परिचित नहीं हो पाता है। विशेषकर वे व्यक्ति जो किसी कारणवश उससे द्वेष रखते हों, तबतक उसकी महानता को स्वीकार नहीं कर पाते, जबतक कि उसका प्रबल प्रमाण उनके सामने प्रस्तुत न हो जाएं । विरोध के कारण दूर रहने से छोटी-छोटी बातों में प्रगट होनेवाली महानता तो उन तक पहुँच ही नहीं पाती है; जो कुछ पहुँचती भी है, वह तीव्र द्वेष में सहज स्वीकृत नहीं हो पाती है। यदि किन्हीं को कभी किसी कार्य को देखकर ऐसा लगत' भी है तो पूर्वाग्रह के कारण समझ में नहीं आती । तथा यदि समझ में भी आवे तो इसमें भी कोई न कोई राजनीति होगी - यह समझकर यों ही उड़ा दी जाती है; क्योंकि उनकी बुद्धि तो उसके दोष-दर्शन में ही सतर्क रहती है ।
सत्य की खोज, अध्याय ३९, पृष्ठ २४०
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