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अक्षम्य अपराध ]
भी तो नहीं था; जिसमें सभी संघ को मौन रहने का आदेश था, विशेषकर मंत्रियों से किसी भी प्रकार की चर्चा करने का निषेध था । अतः तुम्हें इतना कठोर प्रायश्चित देना मेरा हृदय स्वीकार नहीं करता । "
"पूज्यवर ! सवाल प्रायश्चित का नहीं, संघ की सुरक्षा का है । आपने ही तो हमें सिखाया है कि अनुशासन-प्रशासन हृदय से नहीं, बुद्धि से चलते हैं । "
"
'श्रुतसागर के जीवन का मूल्य मैं अच्छी तरह जानता हूँ ।"
"कोई भी इतना मूल्यवान नहीं हो सकता कि जिसपर संघ को न्यौछावर किया जा सके। हम आपके इस आप्तवाक्य को कैसे भूल सकते हैं कि अपराधी को दण्ड देते समय न्यायाधीश को उसके गुणों और उपयोगिता पर ध्यान नहीं देना चाहिए।"
" जानते हो श्रुतसागर लाखों में एक होता है ? समाज को उसका मूल्य आंकना चाहिये।"
"साधु सामाजिक मर्यादाओं से परे होते हैं। साधु को श्रुत के सागर से संयम का सागर होना अधिक आवश्यक है। मैंने वाणी के संयम को तोड़ा है । मौनव्रती साधकों की महानता को वाचाल साधक नहीं पहुँच सकता। मैंने आपकी आज्ञा को भंग किया है । मेरा अपराध अक्षम्य है । "
" पर तुम्हें मेरी आज्ञा का पता ही कहाँ था ?"
" पर श्रुत के सागर को इतना विवेक तो होना चाहिए था कि राह चलते लोगों से व्यर्थ के विवाद में न उलझे । मेरा यह अविवेक तो युग के अन्त तक याद किया ही जायेगा, पर मुझे यह सह्य नहीं है कि इतिहास यह भी कहे कि प्रियतम शिष्य के व्यामोह ने आचार्य अकंपन को भी अकंपन न रहने दिया था ।
मुझसे जो कुछ भी हुआ सो हुआ, पर मैं अपने गुरु की गुरुता को खण्डित नहीं होने दूँगा । आचार्यश्री को मेरे इस हठ को पूरा करना ही होगा । "