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[ आप कुछ भी कहो
धर्म तो वस्तु के स्वभाव का नाम है, उसमें फेरफार करने की बुद्धि ही मिथ्या है, अहंकार है, दुःख का कारण है, दुःखस्वरूप ही है। जगत के क्रमनियत परिणमन को ज्ञाता-दृष्टा भाव से स्वीकार कर लेना ही सम्यग्ज्ञान का कार्य है। उसमें हर्ष-विषाद उचित नहीं, आवश्यक भी नहीं।
भगवान जगत के ज्ञाता-दृष्टा हैं, कर्ता-धर्ता नहीं। जो जगत को साक्षीभाव से अप्रभावित रहकर देख सके, जान सके; वस्तुतः वही भगवान है। भगवान बनने का उपाय भी जगत से अलिप्त रहकर साक्षीभाव से ज्ञाता-दृष्टा बने रहना ही है।
सभी आत्मायें अपने को जानें, पहिचानें; उसी में जम जावें, रम जावें और अनन्त सुखी हों।"
उपदेशामृत से तृप्त सम्राट खड़े हो गये और हाथ जोड़कर विनम्र भाषा में कहने लगे - "हमारी यह भूमि आपके पदार्पण से धन्य हो गई। जब आपके दर्शन ही भवतापहारी हैं तो वचनामृतों का तो कहना ही क्या ?"
ऋषिराज किंचित् मुस्कराये, फिर बोले -
"किसकी भूमि ? भूमि भूमि की है, यह आज तक न किसी की हुई है और न होगी। भवताप का अभाव तो स्वयं के आत्मा के दर्शन से होता है। दूसरों के दर्शन से आज तक कोई भवमुक्त नहीं हुआ और न कभी होगा। भवतापहारी तो पर और पर्याय से भिन्न निज परमात्मतत्त्व ही है। उसके दर्शन का नाम ही सम्यग्दर्शन है, उसके परिज्ञान का नाम ही सम्यग्ज्ञान है और उसका ध्यान ही सम्यक्चारित्र है।अतः उसका जानना, मानना और ध्यान करना ही भव का अभाव करनेवाला है।"
मस्तक झुकाकर सम्राट ने ऋषिराज की बात को सम्मान दिया और अपनी आन्तरिक उत्सुकता न दबा पाने के कारण उनके मुख से सहज ही निकला -
"हमने तो आपके बारे में सुना था कि आप कुष्ठ.."