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आप कुछ भी कहो ]
उनकी बात पूरी ही न हो पाई थी कि ऋषिराज बोल उठे "हम नहीं; हमारी यह देह अवश्य कोढ़ी थी। हम तो देह - देवल (देवालय) में विराजमान भगवान आत्मा हैं, आप भी देह - देवल में विराजमान भगवान आत्मा ही हैं। मन्दिर के विकृत हो जाने से उसमें विराजमान देवता विकृत नहीं हो जाते।"
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"यह तो ठीक, पर यह देह - देवालय ठीक कैसे हुआ?"
"हम नहीं जानते, हम तो यह भी नहीं जानते कि यह विकृत भी कब और कैसे हुआ? पुण्य-पाप के उदयानुसार यह सब तो अपने-अपने क्रमानुसार होता ही रहता है; हम किस-किस को जानें, किस-किस की चिन्ता करें, हम तो अपने में ही तृप्त हैं।"
" क्या आपने इसके लिए कुछ भी नहीं किया ?"
" पर के परिणमन में हम कर भी क्या सकते थे, आवश्यकता भी क्या थी ?"
" भक्ति, मंत्र, तंत्र" ?"
"
'भक्ति, जिनभक्ति तो हमारा दैनिक कर्तव्य है, आवश्यक कर्त्तव्य है, उससे इसका क्या लेना-देना ?
देह सम्बन्धी मिथ्याविकल्पों में उलझना ऋषियों का कार्य नहीं । विकल्पों से होता भी क्या है ? पर में कर्त्तृत्व के सभी विकल्प नपुंसक ही होते हैं, उनसे कुछ बनता - बिगड़ता नहीं। हाँ, यदि उनका मेल कभी जगत के सहज परिणमन से सहज ही हो जावे तो अनादिकालीन मिथ्या मान्यतायें और भी पुष्ट हो जाती हैं।"
" तो इसमें आपने कुछ भी नहीं किया ? "
" तत्सम्बन्धी विकल्प भी नहीं; यदि मुझे ऐसा विकल्प भी होता तो वह मेरे साधुत्व के लिए अभिशाप ही होता । फिर यह देखिये मेरी कनिष्ठा