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मुझे आप से कुछ कहना है ]
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पौराणिक आधारों पर लिखी गई कहानियों में कथानक के मूल बिन्दुओं को पूर्णतः सुरक्षित रखते हुए, उसके आन्तरिक मर्म को उद्घाटित करने का प्रयत्न किया गया है । पात्रों की आन्तरिक कमजोरियों एवं कमियों के उद्घाटन में यह सावधानी सर्वत्र बरती गई है कि उनकी गरिमा को आँच न आने पावे । चक्रवर्त्ती भरत को अभागा और उच्छिष्ट भोजी बताये जाने पर भी उनका गौरव खण्डित नहीं होने पाया है।
आद्य चक्रवर्ती सम्राट भरत का चरित्र प्रथमानुयोग (जैन कथा - साहित्य) का एक ऐसा अद्भुत चरित्र है; जिसमें चरणानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग एवं जिन-अध्यात्म में वर्णित चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि श्रावक के जीवन (आचार-विचार एवं व्यवहार) के प्रत्येक चरमबिन्दु को स्पर्श किया गया है ।
जिनागम के आलोक में मेरे मानस ने उनके अन्तर्बाह्य व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं को गहराई से छुआ है। उपन्यास के रूप में उनके आन्तरिक वैभव के चित्रण की गहरी लालसा चित्त में बहुत दिनों से समाई हुई है। बरसों पहले लिखना आरम्भ भी किया था, पर । भविष्य के बारे में अभी कुछ कहना न तो संभव ही है और न उचित ही ।
'उच्छिष्ट भोजी' कहानी के अन्त में समागत भरत का यह कथन उनके अन्तर का परिचय देने के लिए पर्याप्त है
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"माँ, तेरे भरत का राग चाहे उसके वश की बात न हो; पर उसकी श्रद्धा, उसका ज्ञान - विवेक धोखा नहीं खा सकता। भले ही भरत इस चक्रवर्त्तित्व को छोड़ न सके, पर इसमें रहकर गर्व अनुभव नहीं कर सकता, इसमें रम नहीं सकता ।
चक्रवर्त्तित्व भरत का गौरव नहीं; मजबूरी है, मजबूरी ।"
इस सन्दर्भ में मुझे एक बात यह कहनी है कि पुराणों में भरत की माँ के दो नाम प्राप्त होते हैं - यशस्वती और नन्दा | मेरी दृष्टि में यशस्वती उनकी