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________________ मुझे आप से कुछ कहना है ] इसीप्रकार साहित्य की इस सशक्त विधा के सदुपयोग से यदि हम परमसत्य को जन-जन तक सहज पहुँचा सकते हैं तो दुरुपयोग से अनजान जनता को चमत्कारों के घटाटोप में भी उलझा सकते हैं, मंत्र-तंत्रों के चक्कर में भी फँसा सकते हैं; कुछ नहीं तो मनोरंजन के नाम पर उनके इस महत्त्वपूर्ण मानव जीवन अमूल्य क्षणों को यों ही बरबाद तो कर ही सकते हैं । जैन कथा - साहित्य में भी इसप्रकार की सभी प्रवृत्तियाँ पायी जाती रही हैं । कथा - साहित्य का दिशाबोधक यन्त्र ( कुतुबनुमा ) तत्त्वज्ञान होता है; क्योंकि कथा-साहित्य का सृजन ही तत्त्वज्ञान को सरल-सुबोध रूप में प्रस्तुत करने के लिए होता है। जिनागम का कथानुयोग (प्रथमानुयोग ) भी द्रव्यानुयोग, करणानुयोग एवं चरणानुयोग का पोषक होना चाहिए, होता भी है; किन्तु तत्त्वज्ञानशून्य कथालेखकों ने अपनी चमत्कारप्रियता के कारण उसे विकृत किया है । अथवा यह भी हो सकता है कि अज्ञान के कारण अनजाने में ही ऐसा हो गया हो। जो भी हो, पर मूल कथाबिन्दुओं एवं जैन तत्त्वज्ञान के संदर्भ में उनका पुनर्मूल्यांकन आवश्यक अवश्य है । यह कथन आचार्यों द्वारा प्रतिपादित प्रथमानुयोग के बारे में नहीं, मध्यकालीन भट्टारकीय प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में समझना चाहिये । I प्रस्तुत प्रकाशन में संगृहीत कहानियों में इसप्रकार के कुछ बिन्दुओं को स्पर्श किया गया है; जिनमें आप देखेंगे कि कथानक सम्पूर्णत: उसी रूप में होने पर भी दिशाबोध एकदम बदल गया हैं । 'आप कुछ भी कहो' नामक प्रथम कहानी इसका सर्वाधिक सशक्त उदाहरण है, जिसमें उपलब्ध कथानक के मूल ढाँचे को सम्पूर्णत: उसी रूप में रखे जाने पर भी प्रचलित कहानी का कायाकल्प हो गया है । कहानी की थुलथुल काया से चमत्कारिक कल्पनाओं की अनावश्यक वसा ( चर्बी ) सम्पूर्णत: विसर्जित हो गई है एवं उसके अंग-अंग में तात्त्विक तेज प्रस्फुटित हो उठा है। चमत्कारिक उपलब्धियों से सम्पूर्णत: इन्कार कर दिये जाने पर भी तेजस्वी गुरु का तेज व गौरव कम नहीं होने पाया है, अपितु द्विगुणित हो उठा है
SR No.009439
Book TitleAap Kuch Bhi Kaho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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