________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [67] शंका - जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी घटादि पदार्थ को जानता है और प्रवृत्ति करता है वैसे ही मिथ्यादृष्टि भी पदार्थों को जानता है और व्यवहार करता है। विशेष क्या है? जिससे मिथ्यादृष्टि के ज्ञान को अज्ञान रूप माना गया है। समाधान - मिथ्यादृष्टि का ज्ञान सत्असत् के विवेक से रहित, वह ज्ञान भव-भम्रण का हेतु, स्वतंत्र प्रवृत्ति वाला और ज्ञान के पारमार्थिक (मोक्ष) फल से रहित है, इसलिए मिथ्यादृष्टि का व्यवहार सम्यग्दृष्टि की तरह होते हुए भी उसके ज्ञान को अज्ञान रूप ही माना गया है। नंदीटीका में उल्लेख है कि सम्यग्दृष्टि की मति, मतिज्ञान ही होगी, क्योंकि 1. वह सम्यग्दृष्टित्व के स्पर्श से पवित्र हुई है, 2. जिनागम के अभ्यास से असाधारण हुई है, 3. स्वरूप से अधिक यथार्थ हुई है 4. आदि से अन्त तक विरोध रहित-एक समान है। 5. सम्यक् अनेकान्तवाद युक्त हैं, 6. समसंवेगादि में प्रवृत्त करती है, 7. अहिंसादि चारित्र को उत्पन्न करती है, 8. भव विच्छेद में निमित्त बनती है और 9. कर्म क्षय कर मोक्ष प्राप्ति में कारणभूत बनती है। मिथ्यादृष्टि की मति, मति अज्ञान ही होगी, क्योंकि 1. वह मिथ्यादृष्टित्व के स्पर्श से मलिन है 2. कुशास्त्र के अभ्यास से तुच्छ है, 3. स्वरूप से प्रायः अयथार्थ है, 4. पूर्वापर विरोध युक्त है, 5. एकांतवाद अथवा दूषित अनेकांत वाद युक्त है, 6. संसार रुचि उत्पन्न करती है, 7. हिंसादि में प्रवृत्त करती है, 8. भव वृद्धि का कारण बनती है और 9. संसार परिभ्रमण में निमित्तभूत होती है। उपर्युक्त कथन का तात्पर्य यह है कि ज्ञान का फल अज्ञान की निवृत्ति और निर्वाण पद की प्राप्ति तथा आध्यात्मिक सुखों का अनुभव कराना है, इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव के मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों ही मार्ग प्रदर्शक होते हैं। मिथ्यादृष्टि के मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान दोनों जीवन भ्रष्ट करने वाले एवं अपने तथा दूसरों के लिए अहितकर ही होते हैं अर्थात् मिथ्यादृष्टि में ज्ञान के फल रूप विरति का अभाव होता है, इसलिए उसके ज्ञान को अज्ञान कहा गया है। आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा सम्पादित नंदी में इस विषय पर नंदीचूर्णि का आश्रय लेते हुए तीन प्रश्न उपस्थित किये गए हैं कि -1. ज्ञान और अज्ञान दोनों का कारण समान है, क्योंकि दोनों क्षयोपशम भाव से होते हैं, 2. ज्ञान और अज्ञान दोनों का कार्य भी समान है, क्योंकि दोनों घटादि का ज्ञान करते हैं, 3. शब्द आदि इन्द्रिय विषयों को उपलब्ध करने में दोनों की समानता है। इस स्थिति में ज्ञान और अज्ञान का भेद करने का क्या कारण है? इसका उत्तर देते हुए उमास्वाति कहते हैं कि - मिथ्यादर्शन के कारण जीव एकांत रूप से सत्-असत् का विवेक नहीं कर सकता है। अतः उसका एकांतश्रयी ज्ञान अज्ञान रूप ही होता है।48 उपलक्षण से अवधिज्ञान, अवधि अज्ञान आदि में भी अन्तर अविशेषित अवधि, अवधिज्ञान भी हो सकता है और अवधि अज्ञान (विभंग ज्ञान) भी। पर विशेषित अवधि-सम्यग्दृष्टि की अवधि, अवधिज्ञान ही होगी और मिथ्यादृष्टि की अवधि, अवधि अज्ञान (विभंगज्ञान) ही होगी। पाँच ज्ञानों में मति, श्रुत और अवधि-ये तीनों ही ज्ञान और अज्ञान-यों दोनों रूप में हो सकते हैं, क्योंकि ये तीनों, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि-दोनों में पाये जाते हैं। पर मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान, ये दोनों ज्ञान रूप ही होते हैं, क्योंकि ये दोनों सम्यग्दृष्टि में ही पाये जाते हैं, मिथ्यादृष्टि में नहीं। 45. नंदीसूत्र, पृ. 71, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 114-115 एवं टीका 46. मलयगिरि पृ. 143 47. आचार्य महाप्रज्ञ, नंदीसूत्र, पृ. 92 48. सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्। -तत्त्वार्थसूत्र 1.33