________________ [68] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन श्रुत अज्ञान और ज्ञान - मतिज्ञान से जिन विषयों को जाना है, उनका सुनना, दिखना, खाना, पीना आदि विषयो के भोग में ही सुख है, सुख इन्द्रिय और मन से संबंधित भोग भोगने से ही मिलता है, भोगों का सुख ही जीवन है, भोग्य पदार्थ सुन्दर, स्थायी व सुखद है। इस सुख के बिना जीवन व्यर्थ है, अतः भोगों के सुख को सुरक्षित रखना व संवर्धन करना मिथ्यात्व है। इस मिथ्यात्व युक्त श्रुतज्ञान को श्रुतअज्ञान कहा है। अथवा मिथ्यात्व के कारण इन्द्रियों के भोगों की पराधीनता को स्वाधीनता समझना श्रुतअज्ञान है। श्रुतअज्ञान के कारण अवधिज्ञान में भी जिन रूपी पदार्थों का साक्षात्कार होता है उनके प्रति भी कामना, ममता, राग-द्वेष आदि पैदा होते हैं, इसलिये वह विभंगज्ञान है। एकेन्द्रिय में अचक्षुदर्शन कैसे - एकेन्द्रियों में भी जीव होते हैं, जीव का लक्षण चेतना (उपयोग) होता है। वह उपयोग साकार और अनाकार दो प्रकार का है। एकेन्द्रिय के एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है। अतः स्पर्शनेन्द्रिय का सामान्य उपयोग अचक्षुदर्शन और विशेष उपयोग मति-श्रुत अज्ञान होता है। अव्यक्त चेतना होने से इसका यह सामान्य विशेष उपयोग हमारी इन्द्रियाँ ग्रहण नहीं कर पाती है। वनस्पति से शेष चारों इन्द्रियों की चेतना मन्द होने से वैज्ञानिकयंत्र भी उसे नहीं पकड़ पाते हैं। भगवती सूत्र शतक 19 उद्देशक 3 में पृथ्वीकाय को आक्रान्त करने (दबाने) से एवं शेष कायों का संघट्टा (स्पर्श) करने से उनको वृद्धि व्यक्ति के मस्तक पर जवान अपनी पूरी शक्ति लगाकर दोनों मुक्कों से मार करने पर जो वेदना होती उससे भी (उन जीवों को) अधिक वेदना होती है। यह वेदना की अनुभूति अचक्षुदर्शन और मति-श्रुत अज्ञान में अन्तर्भावित होती है। आगम में पृथ्वीकाय की चेतना को स्पष्ट करने वाला यह उदाहरण पाया जाता है। ज्ञानी और अज्ञानी में अन्तर ज्ञानी भी जानता है और अज्ञानी भी जानता है, किन्तु दोनों की दृष्टि में एवं आचारण में अन्तर होता है। इस अन्तर को संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है - ज्ञानी -1. ज्ञानी प्राय: वर्तमान में जीने वाला होता है, 2. ज्ञानी को पदार्थ में मोह, ममता, तृष्णादि को उचित नहीं मानता हैं, 3. ज्ञानी को जो दिखता है उसमें आसक्त नहीं होकर नहीं देखने वाली की आत्मा का विचार करता है, 4. ज्ञानी प्रायः आर्तध्यान, रौद्रध्यान नहीं करता है, 5. ज्ञानी निवृति के लक्ष्य से प्रवृति करता है और विवेक सहित होता है, 6. ज्ञानी संसार के प्रपंचों से छूट कर आत्म-कल्याण कर सकता है। अज्ञानी - 1. अज्ञानी प्रायः भूत/भविष्य का चिंतन करता रहता है, 2. अज्ञानी पर में मोह ममतादि रखता है, 3. अज्ञानी जो दिखता है, उसमें एकाकार होता है और आत्मा का विचार ही नहीं करता है, 4. अज्ञानी आर्तध्यान और रौद्रध्यान करके नये कर्मों का बन्ध करता है, 5. अज्ञानी आसक्त बनकर प्रवृति करता है और विवेक भी नहीं रखता है, 6. अज्ञानी संसार के प्रपंचों से छूट नहीं सकता है। प्रत्यक्ष-परोक्ष ज्ञान प्राचीनकाल में ज्ञान के पांच प्रकार ही निरूपित हैं। राजप्रश्नीय सूत्र में केशीकुमार श्रमण राजा प्रदेशी से कहते हैं कि हम श्रमण निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के ज्ञान मानते हैं - आभिनिबोधिकज्ञान, 49. कन्हैयालाल लोढ़ा, बन्ध तत्त्व, पृ. 9, 19 50. बन्ध तत्त्व, पृ.१