________________ [66] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन हा सकता है। जबकि मन:पर्यवज्ञान का विषय केवल मनोवर्गणा के पुद्गल परमाणु तक सीमित है। लोक में मनोवर्गणा के पुदगल परमाणुओं का प्रमाण इतना अत्यल्प है कि सर्वावधिज्ञान के अनन्तवें भाग जितना विषय मन:पर्यवज्ञान का है। इस प्रकार विषय की दृष्टि से अवधिज्ञान बड़ा है, परन्तु स्वरूप की दृष्टि से मनःपर्यवज्ञान श्रेष्ठ और सूक्ष्म है, क्योंकि मनःपर्यवज्ञानी अपने विषय के अनेक गुण पर्यायों को जानता है। इसलिए मनःपर्यवज्ञान का विषय बहुत छोटा होने पर भी अधिक सूक्ष्म है और अधिक शुद्ध है, अत: मन:पर्यवज्ञान श्रेष्ठ है। 2. अवधिज्ञान जन्म से भी हो सकता है जैसे देव, नारकी और तीर्थंकर में, लेकिन मनःपर्यवज्ञान जन्म से नहीं होता, विशिष्ट संयम की आराधना से अर्थात् संयम की विशुद्धि से ही वह उत्पन्न होता है। तीर्थंकर भगवान् को भी जन्म से मन:पर्यवज्ञान नहीं होता है। वे जब दीक्षित होते हैं तभी उन्हें मन:पर्यवज्ञान होता है। इस अपेक्षा से भी अवधिज्ञान से मन:पर्यवज्ञान श्रेष्ठ है एवं विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय की दृष्टि से भी अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान में भेद है, जिसका वर्णन आगे करेंगे। उपर्युक्त कारणों से ही अवधिज्ञान के बाद मन:पर्यवज्ञान को रखा गया है। मनःपर्यवज्ञान के बाद केवलज्ञान को रखने का कारण यह है कि मन:पर्यवज्ञान के समान केवलज्ञान का स्वामी अप्रमत्त मुनि होता है एवं केवलज्ञान की प्राप्ति अन्य सभी ज्ञानों से बढ़कर है। इसलिए सबसे बाद में केवलज्ञान का निर्देश किया गया है। जिनदासगगणि ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है। इसलिए इन पंचविध ज्ञान का यही क्रम आगमकारों और टीकाकारों को इष्ट है। अत: जहां भी ज्ञान सम्बन्धित उल्लेख हुआ है, वहाँ पर ज्ञान का यही क्रम दिया है। प्रश्न - केवलज्ञान होने के बाद पूर्व के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि ज्ञानों का क्या होता है ? छूट जाते हैं, या केवलज्ञान में विलय हो जाते हैं ? उत्तर - कुछ विद्वानों का मत है कि केवल ज्ञान होने पर शेष चार ज्ञानों का उसमें समावेश हो जाता है। लेकिन ऐसा मानना उचित नहीं है क्योंकि मतिज्ञान आदि चारों ज्ञान क्षायोपशमिक भाव में हैं और केवलज्ञान क्षायिक भाव में हैं। अत: केवलज्ञान होते ही चारों ज्ञान छूट जाते हैं। जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में भगवान् ऋषभदेव के वर्णन में केवलज्ञान की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि - "केवलमसहायं-नटुंमि उ छाउमथिए नाणे।''43 तथा प्रज्ञापना सूत्र के 29 वें पद में केवलज्ञान की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि - केवलं-एकं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात्, "नटुंमि उ छाउमथिए नाणे" (नष्टे तु छामस्थिके ज्ञाने) इति वचनात् शुद्धं वा केवलं तदावरणमलकलंकविगमात् संकलं वा केवलं प्रथमत एवाशेषतदावरणीय विगतमः इत्यादि प्रमाणों से चार ज्ञान का छूटना स्पष्ट है। मतिज्ञान एवं मति अज्ञान में अन्तर विशेषावश्यकभाष्य में भाष्यकार जिनभद्रगणि ने नंदीसूत्र के आधार से कहा है कि 'मति' मतिज्ञान और मति-अज्ञान रूप है। किन्तु वह मतिज्ञान सम्यक्दृष्टि के होने पर मतिज्ञान और मिथ्यादृष्टि के होने पर मति-अज्ञान कहा जाता है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए। 41. तत्थ दव्वओ णं ओहिणाणी जहण्णेणं अणंताणि रूविदव्वाई जाणइ पासइ, उक्कोसेणं सव्वाई रूविदव्वाई जाणइ पासइ / खेत्तओ ___णं ओहिणाणी जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जाइं अलोए लोयमेत्ताई खंडाई जाणइ पासइ। -युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 41 42. नंदीचूर्णि पृ. 22 43. जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ति, वक्षस्कार 2, पृ. 150 44. प्रज्ञापना वृत्ति, पद 29, पृ. 238