________________ [58] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन श्रोत्रेन्द्रिय आदि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और दर्शन गुण का अभाव हो जाता है, ऐसा नहीं है अथवा इन गुणों का आवरण घट-बढ़ जाता है, ऐसा भी नहीं है। ज्ञान (श्रुतज्ञान) के अनुरूप आचण कर कषाय को क्षीण करने से, चारित्र मोहनीय कर्म को क्षीण करने से और चारित्र की शुद्धि से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम और क्षय होता है। ज्ञान आत्मा का गुण है। गुण की वृद्धि कभी अहितकर नहीं हो सकती है। जिस ज्ञान से विषय-कषाय, राग-द्वेष मोह में वृद्धि हो, वह ज्ञान आत्मा का गुण नहीं है, अपितु ज्ञानावरणीय कर्म का उदय है। जिस ज्ञान से विषय भोगों की रुचि जगे, आरंभ-परिग्रह की वृद्धि हो, काम, क्रोध, मद, लोभ अहं का पोषण हो, वह ज्ञान के अनादर का फल है, ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम का फल नहीं है, वह औदयिक भाव है। अत: इन्द्रियविषय एवं कषायवर्धक ज्ञान को ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम मानना युक्तिसंगत नहीं है। ज्ञानावरणीय कर्म के बंध के कारण - भगवती सूत्र शतक 8 उद्देशक 9 में ज्ञानावरणीय कर्म बन्ध के छह कारणों का उल्लेख है -1.णाणपडिणीययाए - ज्ञान और ज्ञानी की प्रत्यनीकता (विरोध) करने से अथवा उनेक प्रतिकूल आचारण करना या उनका अवर्णवाद बोलना से, 2. णाणणिण्हवणयाए - ज्ञान एवं ज्ञानदाता का अपलाप करने (लोप करने-छुपाने) से अथवा जिससे ज्ञान प्राप्त किया है, उसका उपकार नहीं मानना से, 3. णाणंतराएणं - ज्ञान प्राप्त करने वाले को अन्तराय डालने (बाधक बनने) से, 4. णाणप्पओसेणं- ज्ञान व ज्ञानी से द्वेष करने से, ज्ञान व ज्ञानी के दोष निकालने से, 5. णाणच्चासायणाए - ज्ञान व ज्ञानी की आशातना करने से और 6. णाणविसंवायणाजोगेणं - ज्ञानी से विसंवाद (वितण्डावाद) करने से अथवा दोष बताने वाली प्रवृत्ति करने से। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग जीव का लक्षण उपयोग है, जो कि जीव का असाधारण लक्षण है। जो उपयोग युक्त है वह जीव और जो उपयोग रहित हो, वह अजीव है। यहाँ उपयोग का अर्थ जीव का बोध रूप व्यापार है। उपयोग के दो भेद हैं - साकार (ज्ञान) और अनाकार (दर्शन)। आत्मा का बोध रूप व्यापार जो वस्तु के सामान्य धर्म को गौण करके मुख्य रूप से वस्तु के विशेष धर्म को जानता है, वह साकार (ज्ञान) उपयोग है अर्थात् स्व और अन्य पदार्थों का विशेष ज्ञान होने रूप कार्य ज्ञानोपयोग है। आत्मा का बोधरूप व्यापार वस्तु के विशेष धर्म को गौण करके वस्तु के सामान्य धर्म को मुख्य रूप से जानता है, वह अनाकार (दर्शन) उपयोग है अर्थात् स्व और अन्य पदार्थों का सामान्य दर्शन होने रूप कार्य दर्शनोपयोग है। ज्ञानोपयोग है जीव द्वारा दीपक के समान स्व और पर पदार्थ को प्रतिभासित करना और दर्शनोपयोग है जीव द्वारा दर्पण के समान स्व और पर पदार्थ को अपने में प्रतिबिम्बित करना। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार दीपक का स्वभाव स्व और अन्य पदार्थों को प्रतिभासित करने का है, उसी प्रकार जीव का स्वभाव भी स्व और अन्य पदार्थों को प्रतिभासित करने का है तथा जिस प्रकार दर्पण का स्वभाव स्व और अन्य पदार्थों को अपने अन्दर प्रतिबिम्बत करने का है, उसी प्रकार जीव का स्वभाव भी स्व और अन्य पदार्थों को अपने अन्दर प्रतिबिम्बत करने का है। ज्ञान और दर्शन की परिभाषा की समालोचना पूर्वाचार्यों ने सामान्य को दर्शन और विशेष को ज्ञान कहा है। लेकिन कन्हैयालाल लोढ़ा के मन्तव्यानुसार यह समीचीन प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि सामान्य शब्द से अभिप्राय यहाँ ज्ञान से 9. कन्हैयालाल लोढ़ा, बन्ध तत्त्व, पृ. 2-4 10. सरस्वती-वरदपुत्र पं. बशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रंथ, खंड 4, पृ. 49