________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [57] जानने की और अर्थ में ज्ञान के द्वारा जाने जा सकने की क्षमता है। यही दोनों में कथंचित् अभेद का कारण है। संसार के सभी ज्ञेय पदार्थों का उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य रूप परिणमन होता है। ज्ञान की परिणति ज्ञेयाकार होती है। ज्ञेय पदार्थों में उत्पाद-व्यय होने पर वह ज्ञान में प्रतिभासित होता है, ज्ञान आत्मा का गुण है और उसे द्रव्य, गुण और पर्याय से युक्त कहा गया है। ज्ञेय पदार्थों में घटित होने वाला उत्पाद-व्यय ज्ञान-गुण में भी घटित होता है। द्रव्य और गुण में भी कथंचित् अभेद है। आत्मा ज्ञाता है और संसार के सभी पदार्थ ज्ञेय हैं। ज्ञाता अपनी शक्ति से ज्ञेय को जानता है, वस्तुतः वही ज्ञान है। आत्मा और ज्ञान में गुण (ज्ञान) और गुणी (आत्मा) का भी सम्बन्ध है। ज्ञान का कारण प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण होता है, उसी प्रकार जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान का कारण आठ प्रकार के कर्मों में से ज्ञानावरणीय कर्म है। ज्ञान को आवरित करने वाला कर्म ज्ञानावरण कहलाता है। ज्ञानावरण शब्द ज्ञान और आवरण से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है ज्ञान पर आवरण आना। जो वस्तु पहले से ही विद्यमान है, उसे ढक देना, प्रकट नहीं होने देना आवरण है। जिस प्रकार सूर्य के आगे बादल आ जाते हैं, तो सूर्य दिखाई नहीं देता है। उसका प्रकाश पूर्ण प्रकट नहीं होता है। बादल सूर्य और उसके प्रकाश पर आवरण है। इसी प्रकार ज्ञान गुण के प्रकाश का प्रकट नहीं होना अर्थात् ज्ञान का आत्मा में पूर्णतः अभिव्यक्त नहीं होना, ज्ञानावरण है। इस कर्म के क्षय-क्षयोपशम से ही जीव को ज्ञान की प्राप्ति होती है। जीवों में ज्ञान की न्यूनाधिकता का कारण जैन दार्शनिकों ने ज्ञान को आत्मा का स्वाभाविक गुण माना है। जिस प्रकार सूर्य स्वभावत: स्व-पर प्रकाशक होता है, वह अन्य निरपेक्ष रूप से ही स्वयं को तथा उसके प्रकाशित क्षेत्र में रहे हुए सभी पदार्थों को प्रकाशित करता है। लेकिन बीच में धूल, बादल आदि का व्यवधान आने पर सूर्य व्यवधानों की तीव्रता, सघनता आदि के आधार पर पदार्थों को न्यूनाधिक प्रकाशित करता है। इसी प्रकार संसारी आत्मा में ज्ञानावरणीय कर्म जितना सघन होता है, उसका उदय जितना तीव्र होता है, आत्मा में विषय बोध की क्षमता उतनी ही कम हो जाती है तथा आवरण कर्मों के क्षयोपशम में वृद्धि की मात्रा के साथ यह स्वतः विकसित होती जाती है। अतः संसार के सभी जीवों का ज्ञानोपयोग एक समान नहीं होता है, उसमें भिन्नता दिखाई देती है। इस ज्ञान की न्यूनाधिकता का सम्बन्ध प्रायः विद्वान् उपर्युक्त कथनानुसार ज्ञानावरणीय कर्म के साथ जोड़ते हैं। पं. कन्हैयालाल लोढ़ा ने ज्ञानावरण का सम्बन्ध मोहनीय कर्म के साथ जोड़ा है, उनके अनुसार ज्ञान के आवरण का तथा ज्ञान गुण के घटने-बढ़ने का सम्बन्ध मोह के घटने-बढ़ने से है। ज्ञान गुण की न्यूनाधिकता का सम्बन्ध बाह्य जगत् की वस्तुओं को अधिक या कम जानने से नहीं है, कारण कि गुणस्थान चढ़ते समय कोई साधक बाह्य जगत् के गणित, खगोल, भूगोल आदि को अधिक जानने लगता हो तथा गुणस्थान उतरते समय इनका ज्ञान कम हो जाता हो, ऐसा नहीं होता है अर्थात् बाह्य वस्तुओं, भाषा, साहित्य, विज्ञान आदि को जानने से अथवा नहीं जानने से ज्ञानावरणीय कर्म की न्यूनाधिकता का माप नहीं किया जा सकता है। अत: ज्ञान गुण की उपयोगिता के बढ़ने, घटने व अभाव होने से ज्ञान गुण घटता-बढ़ता नहीं है, जैसेकि कोई व्यक्ति अपने नेत्रों से वस्तुओं को देख रहा है तब वह चक्षुरिन्द्रिय मतिज्ञान का उपयोग कर रहा है। श्रोत्रेन्द्रिय आदि शेष इन्द्रियों के मतिज्ञान का, श्रुतज्ञान का, दर्शन का अंश मात्र भी उपयोग नहीं हो रहा है, अतः इनके उपयोग का अभाव होने से