________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [59] लगाया जाय, तो फिर ज्ञान गुण के ही दो भेद हो जायेंगे - 1. सामान्य ज्ञान और 2. विशेष ज्ञान। इससे दर्शन के स्वरूप का अस्तित्व लोप हो जाएगा। अत: यहाँ 'सामण्णगहणं दंसणं' से सामान्य शब्द का अभिप्राय सामान्य ज्ञान नहीं हो सकता है। पूर्वाचार्यों ने दर्शनगुण की निम्न विशेषताएं बतलाई हैं - 1. निर्विकल्प 2. अनाकार 3. अनिर्वचनीय 4. अविशेष 5. अभेद 6. स्वसंवेदन 7. अंतर्मुख चैतन्य आदि तथा ज्ञानगुण की विशेषताएं हैं - 1. सविकल्प 2. साकार 3. विशेष 4. बहिर्मुख चित् प्रकाश आदि। यदि हम सामान्य शब्द का अभिप्राय सामान्य ज्ञान से लेंगे, तो ज्ञान की तीनों विशेषताएं सविकल्पता, साकारता, वचनीयता का दर्शन के साथ जुड़ने का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा और इनके होने पर वह दर्शन 'दर्शन' गुण ही न रहेगा, ज्ञान गुण हो जायेगा। अतः प्रश्न होता है कि ऐसा है तो पूर्वाचार्यों ने 'सामान्य ग्रहण' को दर्शन क्यों कहा है? इसका समाधान यह है कि दर्शन निर्विकल्प व अनाकार होने से अनिर्वचनीय है। जो अनिर्वचनीय है, उसे वचन से परिभाषित नहीं किया जा सकता। परन्तु दर्शन को समझाने के लिए कोई न कोई आधार प्रस्तुत करना आवश्यक था। अतः पूर्वाचार्यों ने एक निषेधात्मक संकेतपरक मार्ग का अनुगमन किया और वह यह है कि उन्होंने ज्ञान गुण को परिभाषित किया और कहा कि जिसमें विशेष-विशेष जानकारी हो, वह ज्ञान है और ज्ञान गुण से भिन्न जो गुण है, वह दर्शन गुण है। ज्ञानगुण है - विशेष की जानकारी, अतः ज्ञान गुण से भिन्न गुण वह होगा जिसमें विशेष की जानकारी का अभाव हो। संसार में दो ही बातें देखी जाती है - सामान्य और विशेष। अत: विशेष के अभाव को दिखाने के लिए आचार्यों ने संकेतात्मक रूप से सामान्य शब्द का प्रयोग किया। सारांश में हम कह सकते हैं कि जहाँ सामान्य ग्रहण दर्शन कहा है वहाँ सामान्य शब्द का प्रयोग अविशेष अनुभूति के लिए हुआ है, जिसका दूसरा नाम संवेदन है। श्री वीरसेनाचार्य ने दर्शन और ज्ञान के स्वरूप का वर्णन करते हुए 'सगसंवेयण' स्व-संवेदन को दर्शन कहा है।" डॉ. मोहनलाल मेहता के अनुसार दर्शन को सामान्यग्राही मानने का अर्थ केवल इतना ही है कि उस उपयोग में सामान्य धर्म झलकता है। जब कि ज्ञानोपयोग में विशेष धर्म की ओर प्रवृत्ति रहती है। इसका यह अर्थ नहीं कि सामान्य का तिरस्कार करके विशेष का ग्रहण किया जाता है अथवा विशेष को एक ओर फैंककर सामान्य का सम्मान किया जाता है। वस्तु में दोनों धर्मों के रहते हुए भी उपयोग किसी एक धर्म को मुख्य रूप से ग्रहण कर सकता है। यदि ऐसा न होता तो हम सामान्य और विशेष का भेद ही नहीं कर पाते। उपयोग में धर्मों का भेद हो सकता है, वस्तु में नहीं। उपयोग में सामान्य और विशेष का भेद किसी भी तरह व्यभिचारी नहीं है।2 ज्ञान और दर्शन में अन्तर 1. ज्ञानोपयोग में स्वपरव्यवसायात्मकता होने पर प्रमाणता है और दर्शनोपयोग में स्वव्यवसायात्मकता और परव्यवसायात्मकता दोनों का अभाव होने से प्रमाणता नहीं है। 2. ज्ञानोपयोग को विशेषग्रहण तथा साकार, सविकल्पक और व्यवसायात्मक स्वीकार किया गया है। जबकि दर्शनोपयोग सामान्य अवलोकन या सामान्यग्रहण रूप तथा निराकार, निर्विकल्पक और अव्यवसायात्मक स्वीकार किया गया है। 3. दर्शनोपयोग ज्ञानोपयोग की उत्पत्ति में कारण होता है। 11. कन्हैयालाल लोढ़ा, बन्धतत्त्व, पृ. 62-63 12. जैन धर्म-दर्शन एक समीक्षात्मक परिचय, बैंगलोर, सेठ-मूथा छगनमल मेरोरियल फाउण्डेशन, पृ. 294