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अंगप्रविष्ट-अंगबाह्य श्रुत, ये चौदह भेद विवेचित हैं। 3. षट्खण्डागम के अनुसार यथा पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वारसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्वसमास. ये बीस भेद निरूपित हैं। 4. तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो भेद प्राप्त होते हैं। उपर्युक्त भेदों में आवश्यकनियुक्ति कृत भेदों से श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में विशिष्ट जानकारी मिलती है, इसलिए ये भेद उचित प्रतीत होते हैं।
मलधारी हेमचन्द्र की बृहद्वृत्ति के अनुसार जिसे आत्मा सुने वह श्रुत है, क्योंकि शब्द को जीव सुनता है, इसलिए श्रुतज्ञान शब्द रूप ही है। यदि ऐसा मानेंगे तो श्रुत आत्म-परिणाम रूप नहीं रहेगा, क्योंकि शब्द पौद्गलिक होने से मूर्त रूप होता है जबकि आत्मा अमूर्त है। किन्तु मूर्त वस्तु अमूर्त का परिणाम नहीं होती है और आगम में तो श्रुतज्ञान को आत्म-परिणाम रूप माना गया है। अतः वक्ता द्वारा बोला गया शब्द श्रुतज्ञान का निमित्त होता है। श्रुतज्ञान के इस निमित्तभूत शब्द में श्रुत का उपचार किया जाता है, लेकिन परमार्थ से जीव (आत्मा) ही श्रुत है।
यदि शब्दोल्लेखज्ञान श्रुतज्ञान है तो इस लक्षण से एकेन्द्रिय जीवों में श्रुत ज्ञान नहीं हो सकता है, इस शंका का समाधान करते हुए जिनभद्रगणि ने कहा है कि एकेन्द्रिय जीवों में भी श्रुतज्ञान (श्रुत अज्ञान) आहार संज्ञा आदि के समय होता है, पर वह अत्यन्त मन्द रूप होता है।
जिनभद्रगणि के अनुसार अक्षर का सर्वद्रव्य पर्याय परिणाम वाला होने से अक्षर का विशेष अर्थ केवलज्ञान होता है, जिसका रूढ़ अर्थ श्रुतज्ञान होता है, क्योंकि रूढ़ि वश अक्षर का अर्थ वर्ण
जिनभद्रगणि के अनुसार लब्धि अक्षर के दो भेद होते हैं - 1. इन्द्रिय और मन के निमित्त से श्रुतग्रंथ के अनुसार ज्ञान एवं 2. श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम। जिनदासगणि एवं मलियगिरि ने प्रथम अर्थ तथा हरिभद्र एवं यशोविजय ने उपर्युक्त दोनों अर्थों को स्वीकार किया गया है।
मलधारी हेमचन्द्र ने बृहद्वृत्ति में हस्तादि चेष्टाओं को श्रुतज्ञान माना है। जिनभद्रगणि ने इन्द्रियज्ञान को परमार्थ से अनुमान रूप ही स्वीकार किया है।
जिनभद्रगणि के अनुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर जो श्रुतज्ञान के विषय का वर्णन किया गया है। उसमें जानने (जाणइ) और देखने (पासइ) रूप दो क्रियाओं का प्रयोग किया गया है। आपका मत है कि नंदीसूत्र में 'जाणइ न पासइ' होना चाहिए। क्योंकि श्रुतज्ञानी जानता है, लेकिन अचक्षुदर्शन से देखता नहीं है।
अवधिज्ञान - इन्द्रिय एवं मन की सहायता के बिना सीधे आत्मा से होने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहा जाता है। जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यकभाष्य में चौदह निक्षेपों या द्वारों की अपेक्षा अवधिज्ञान का विस्तार से वर्णन किया है, वे निक्षेप हैं - 1. अवधि, 2. क्षेत्रपरिमाण, 3. संस्थान, 4. आनुगामिक, 5. अवस्थित, 6. चल, 7. तीव्रमंद, 8. प्रतिपाति-उत्पाद, 9. ज्ञान, 10. दर्शन, 11. विभंग, 12. देश, 13. क्षेत्र और 14. गति। इन चौदह द्वारों के बाद पंद्रहवें द्वार के रूप में ऋद्धि का उल्लेख किया है। ___ अवधिज्ञान के दो प्रकार प्रमुख हैं - 1. भवप्रत्यय और 2. गुणप्रत्यय अवधिज्ञान। जन्म से होने वाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय कहलाता है। यह देवों और नारकों को जन्म से प्राप्त होता है। इस ज्ञान के माध्मय से वे अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक के रूपी पदार्थों का ज्ञान