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पूज्यपाद आदि के अनुसार अव्यक्त ग्रहण व्यंजनावग्रह तथा व्यक्त ग्रहण अर्थावग्रह है, जिनभद्रगणि के अनुसार व्यंजनावग्रह में विषय और विषयी के सन्निपात से दर्शन नहीं होता है । अर्थावग्रह में सामान्य, अनिर्देश्य एवं नाम, स्वरूप जाति से रहित ज्ञान होता है, जिसे अपेक्षा विशेष से दर्शन की श्रेणी में रख सकते हैं। जबकि वीरसेनाचार्य ने प्राप्त अर्थ का ग्रहण व्यंजनावग्रह और अप्राप्त अर्थ का ग्रहण अर्थावग्रह कहा है।
जिनभद्रगणि ने दर्शन, आलोचना एवं अवग्रह को अभिन्न माना है, जबकि मलधारी हेमचन्द्र आलोचना को अर्थावग्रह रूप मानते हैं, लेकिन उन्होंने दर्शन के बाद अवग्रह को भी स्वीकार किया है ।
जिनभद्रगणि ने व्यंजानावग्रह को ज्ञान रूप माना है। उन्होंने अर्थावग्रह के नैश्चयिक और व्यावहारिक भेद किये हैं। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की अवधारणा भी जिनभद्रगणि की ही देन है। जिनभद्रगणि ने अवग्रह और संशय को भिन्न रूप माना है एवं संशय को ज्ञान रूप स्वीकार किया है, किन्तु उसे प्रमाण नहीं माना है ।
विशेषावश्यकभाष्य और बृहद्वृत्ति में अवाय को औपचारिक रूप से अर्थावग्रह कहा गया
है।
अवग्रह के दोनों भेदों में से व्यंजनावग्रह निर्णयात्मक नहीं होने तथा अनध्यवसायात्मक रूप होने के कारण वह प्रमाण की कोटि में नहीं आता है। लेकिन जिनभद्रगणि ने उपचरित अर्थावग्रह को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा है।
जिनभद्रगणि ने अवग्रह और ईहा के मध्य में संशय को स्थान नहीं दिया है।
जिनभद्रगणि ने निर्णयात्मक ज्ञान की अविच्छिन्न रूप से स्थिति को धारणा माना है । यहाँ अविच्युति को उपलक्षण से मानते हुए अविच्युति, वासना (संस्कार) और स्मृति इन तीनों को धारणा रूप स्वीकार किया है। जबकि पूर्वाचार्य पूज्यपाद ने वासना (संस्कार) को ही धारणा रूप माना है।
जिनभद्रगणि ने नैश्चयिक अर्थावग्रह का काल एक समय, व्यंजनावग्रह तथा व्यावहारिक अर्थावग्रह का काल अन्तर्मुहूर्त, ईहा और अपाय का काल अन्तर्मुहूर्त, अविच्युति और स्मृति रूप धारणा का काल भी अन्तर्मुहूर्त, वासना रूप धारणा का काल संख्यात, असंख्यात काल तक माना
है ।
जिनभद्रगणि के मत में किसी अपेक्षा से अवग्रह भी दर्शन होता है, क्योंकि उन्होंने दर्शन का विशेष उल्लेख नहीं किया है लेकिन विशेषावश्यकभाष्य में उन्हेंने एक स्थान पर अवग्रह - ईहा को दर्शन रूप माना है, दर्शन के समान अवग्रह में विशेषतः अर्थावग्रह में निर्विकल्पकता और निराकारता प्राप्त होती है,
श्रुतज्ञान जिसे मतिज्ञान पूर्वक स्वीकार किया गया है। इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान के पश्चात् हेय और उपादेय का बोध श्रुतज्ञान से ही होता है । यह सत्-असत् का भेद कराने में समर्थ होता है। हेय उपादेय का बोध कराने के कारण आगम ज्ञान को भी श्रुतज्ञान कहा गया है। श्रुतज्ञान के भेदों की चार परम्पराएं प्राप्त होती हैं - 1. अनुयोगद्वार सूत्र मे नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के आधार पर श्रुतज्ञान का विवेचन किया गया है। 2. आवश्यकनिर्युक्ति में अक्षर - अनक्षर, संज्ञी - असंज्ञी, सम्यक्-मिथ्या श्रुत, सादि-अनादि श्रुत, सपर्यवसित-अपर्यवसित श्रुत, गमिक-अगमिक श्रुत,