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जिनभद्रगणि ने अवग्रह में ही सम्पूर्ण मतिज्ञान का ग्रहण कर लिया है। उनका कथन है कि अवग्रह का अर्थ है - अर्थ को ग्रहण करना। अवग्रह की भांति ईहा, अवाय और धारणा भी किसी न किसी अर्थ को ग्रहण करते हैं इसलिए वे सब सामान्य रूप से अवग्रह ही हैं। इसी प्रकार ईहा, अपाय और धारणा में सम्पूर्ण मतिज्ञान का समावेश हो जाता है।
जिनभद्रगणि ने मति और श्रतज्ञान में हेत और फल की अपेक्षा से भेद स्पष्ट करते हए कहा है कि भावश्रुत मतिपूर्वक होता है न कि द्रव्यश्रुत। द्रव्यश्रुत को भावश्रुत का कारण सिद्ध किया है। मतिज्ञान के पूर्व द्रव्यश्रुत हो सकता है। अत: नंदी सूत्र में ‘ण मति सुयपुब्विया' में भावश्रुत का निषेध किया गया है।
जन सामान्य में यह धारणा प्रचलित है कि श्रोत्रेन्द्रिय से सम्बन्धित ज्ञान श्रुतज्ञान है तथा शेष इन्द्रियों से सम्बन्धित ज्ञान मतिज्ञान है। जिनभद्रगणि इसका समाधान करते हुए निरूपित करते हैं कि श्रुतानुसारी अक्षरलाभ ही श्रुत है,वह किसी भी इन्द्रिय से हो सकता है, उससे भिन्न ज्ञान मतिज्ञान है। यह पांचों इन्द्रिय और मन से होता है, लेकिन श्रुतानुसारी नहीं होता है। अतः जो श्रुतानुसारी ज्ञान है, वह श्रोता और वक्ता के लिए श्रुतज्ञान है और जो श्रुत के स्वरूप से रहित है, वह दोनों के लिए मतिज्ञान है।
कुछ आचार्य मतिज्ञान को अनक्षर और श्रुत को अक्षर एवं अनक्षर रूप उभयात्मक स्वीकार करते हैं। जिनभद्रगणि के अनुसार मति और श्रुत दोनों उभयात्मक हैं, लेकिन द्रव्याक्षर की अपेक्षा श्रुतज्ञान साक्षर है, मतिज्ञान अनक्षर है।
जिनभद्रगणि का कथन है कि भाष्यमाण अर्थ को द्रव्य श्रुत रूप मानने पर भावश्रुत का अभाव प्राप्त होता है। इसलिए बुद्धि से आलोचित हुए अर्थों में जो अर्थ श्रुतमति सहित भाषण करने के योग्य है, चाहे वह अर्थ उस समय नहीं बोला जा रहा है, तो भी वह भावश्रुत है, जबकि शेष अर्थ मति है।
जिनभद्रगणि ने श्रुतज्ञान को अभिलाप्य तथा मतिज्ञान को अभिलाप्य और अनभिलाप्य रूप माना है।
जिनभद्रगणि ने मति और श्रुत दोनों में इन्द्रिय और मन का निमित्त स्वीकार किया है। जबकि पूर्वाचार्य उमास्वाति ने मतिज्ञान को इन्द्रिय और मन के निमित्तक तथा श्रुतज्ञान को मनोनिमित्तक माना है।
जिनभद्रगणि ने औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियों को अवग्रहादि से अभिन्न माना है।
अवग्रह के सम्बन्ध में कुछ आचार्यों का मानना है कि 'यह वह है' ऐसा सामान्य विशेषात्मक ज्ञान अवग्रह रूप है। जिनभद्रगणि कहते हैं कि यह ज्ञान तो निश्चय रूप है, जिसको स्वीकार करने पर ईहा, अपाय की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी, इसलिए यह उचित नहीं है।
जिनभद्रगणि व्यंजनावग्रह के पूर्व दर्शन को स्वीकार नहीं करते हैं, जबकि पूर्वाचार्य पूज्यपाद ने व्यंजनावग्रह के पूर्व दर्शन को स्वीकार किया है।
जिनभद्रगणि के अनुसार श्रुत साक्षर और मति साक्षर और अनक्षर रूप होता है। जिनभद्रगणि ने व्यंजनावग्रह को ज्ञान रूप माना है।
बहु, बहुविध आदि बारह भेद एक समय वाले अवग्रह में घटित नहीं होते हैं, इसके लिए जिनभद्रगणि ने सांव्यवहारिक अवग्रह की कल्पना करके इन भेदों को घटित किया है।