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28000 श्लोक परिमाण शिष्यहिता नामक बृहद्वृत्ति का आलेखन किया गया है। इस वृत्ति में भाष्य में जितने विषय आये हैं, उन सभी विषयों को बहुत ही सरल और सुगम दृष्टि से समझाने का प्रयास किया गया है। शंका-समाधान और प्रश्नोत्तर की पद्धति का प्राधान्य होने के कारण पाठक को अरुचि का सामना नहीं करना पड़ता। यह इस टीका की बहुत बड़ी विशेषता है।
मति आदि पांच ज्ञानों का जो क्रम रखा गया है, वह स्वामी, काल, विषय आदि के आधार से है। ज्ञान के मुख्य रूप से तीन साधन होते हैं - 1. इन्द्रिय, 2. मन और 3. आत्मा। आगमिक परम्परा के अनुसार इसमें से प्रथम दो परोक्ष ज्ञान के तथा आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञान का साधन होती है। संसारी आत्मा को पहचानने का जो लिंग होता है, उसे इन्द्रिय कहते हैं। जैनदर्शन में इन्द्रियों को पौद्गलिक माना गया है, जिससे नैयायिकों के श्रोत्र का आकाश स्वरूप मानने के मत का खण्डन हो जाता है।
न्याय-वैशेषिक दर्शन में चक्षु इन्द्रिय और मन को प्राप्यकारी स्वीकार किया गया है। जबकि जिनभद्रगणि ने तर्कपूर्वक चक्षुइन्द्रिय और मन को अप्राप्यकारी सिद्ध किया है एवं शेष चार इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान को प्राप्यकारी माना गया है। सभी भारतीय दर्शनों ने मन के अस्तित्व को स्वीकार किया है। जिसके द्वारा पदार्थों का मनन किया जाता है, वह मन कहलाता है। जिसके द्वारा अतीत की स्मृति और भविष्य की चिन्ता (कल्पना) की जाती है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा है। यह संज्ञा जिन जीवों के होती है, उन्हीं को मन का अधिकारी माना गया है।
मतिज्ञान - मन और इन्द्रिय की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। इसे आभिनिबोधिक ज्ञान भी कहा जाता है। अर्थाभिमुख होते हुए जो नियत अर्थ ज्ञान है, वह आभिनिबोध है तथा अर्थ-बल से बिना किसी व्यवधान के उत्पन्न निश्चयात्मक ज्ञान, आभिनिबोधिक ज्ञान है। मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा भेद किए गये हैं, वे भी इन्द्रिय एवं मनोज्ञान की प्रक्रिया को समझने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इनकी छाया हमें शिशुपालवध के प्रथम सर्ग में तब प्राप्त होती है जब देवलोक से उतरते हुए नारदजी का स्वरूप अस्पष्ट से स्पष्टतर होता जाता है।
अवग्रह वस्तु का वह सामान्य ज्ञान है। जिसमें वस्तु को नामादि निर्दिष्ट नहीं किया जाता है। 'रूप-रसादिभेदैरनिर्देश्यस्याऽव्यक्तस्वरूपस्य सामान्यार्थस्याऽवग्रहणं परिच्छेदनमवग्रहः।' अवग्रह से ज्ञात वस्तु के विषय में विशेष जानने की आकांक्षा को ईहा कहा गया है। ईहित ज्ञान का निर्णय अवाय कहलाता है। अवाय ज्ञान की दृढ़तम अवस्था या संस्कार को धारणा ज्ञान कहते हैं। ये चारों मतिज्ञान के विभिन्न स्तर हैं। षट्खण्डागम, तत्त्वार्थसूत्र आदि में इनमें से प्रत्येक के बहु-बहुविध, अल्प-अल्पविध, क्षिप्र-अक्षिप्र आदि बारह-बारह प्रकार बताये गये हैं। इन प्रकारों का निरूपण जैन दर्शन में निरूपित ज्ञान-मीमांसा की सूक्ष्मता को दर्शाता है।
प्रमाण मीमांसा में मान्य सांव्याहारिक प्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं अनुमान प्रमाण का समावेश मतिज्ञान में ही होता है। यही नहीं पूर्व जन्मों का ज्ञान भी मतिज्ञान के ही अन्तर्गत समाविष्ट है।
जिनभद्रगणि का वैशिष्ट्य है कि उन्होंने मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्दों में से मति, प्रज्ञा, आभिनिबोधिक और बुद्धि को वचनपर्याय के रूप में तथा ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संख्या और स्मृति को अर्थपर्याय के रूप में स्वीकार किया है। दूसरी अपेक्षा से मति, प्रज्ञा, अवग्रह, ईहा, अपोह आदि सभी मतिज्ञान के वचनपर्याय रूप हैं और इन शब्दों से मतिज्ञान के कहने योग्य भेद अर्थपर्याय रूप हैं।