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कर लेते हैं। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य एवं पंचेन्द्रिय तिर्यंचों को होता है। यह जन्म से नहीं अपितु अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से प्राप्त होता है। इसके मुख्य रूप से छह प्रकार निरूपित हैं - 1. अनुगामिक - जो अवधिज्ञान प्रकट होने के बाद उत्पत्ति स्थान को छोड़ने पर भी साथ रहता है, उसे अनुगामिक कहते हैं। 2. अनानुगामिक जिस स्थान पर ज्ञान प्रकट होता है, उस उत्पत्ति स्थान को छोड़ने पर ज्ञान साथ न रहे तो उसे आनुगामिक अवधिज्ञान कहा जाता है। 3. वर्धमान जो अवधिज्ञान एक बार प्रकट होने के बाद निरंतर बढ़ता रहता है, उसे वर्धमान अवधिज्ञान कहा जाता है। 4. हीयमान जो अवधिज्ञान प्रकट होने के बाद निरन्तर क्षीण होता जाता है, वह हीयमान अवधिज्ञान है। 5. अवस्थित जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् बना रहता है, उसे अवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं। 6. अनवस्थित- जो अवधिज्ञान प्रकट होने के अनन्तर न्यूनाधिक होता रहता है अथवा समाप्त हो जाता है, उसे अनवस्थित अवधिज्ञान है ।
इसके अलावा अवधिज्ञान के निम्न भेद भी प्राप्त होते हैं 1. देशावधि, 2. परमावधि, 3. सर्वावधि, 4. सप्रतिपाति, 5. अप्रतिपाति, 6. एक क्षेत्रावधि और 7. अनेक क्षेत्रावधि ।
जिनभद्रगणि ने तीव्र - मंद द्वार का स्वरूप समझाने के लिए स्पर्धक अवधिज्ञान का वर्णन किया है, जिसके अन्तर्गत अवधिज्ञानी को कुछ क्षेत्र ज्ञात, फिर कुछ अज्ञात एवं फिर कुछ क्षेत्र ज्ञात होता है।
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सम्यग्दृष्टि जीव के अवधिज्ञान और मिथ्यादृष्टि के विभंगज्ञान होता है। कुछ आचार्यों ने इस प्रसंग पर विभंग दर्शन को सिद्ध करने का प्रयास किया है, जिसका जिनभद्रगणि ने खण्डन किया
है ।
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जिनभद्रगणि ने क्षेत्र द्वार में संबद्ध और असंबद्ध अवधिक्षेत्र का वर्णन किया है।
मनः पर्यवज्ञान - संयम की विशुद्धि से मनः पर्यवज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर जो ज्ञान प्रकट होता है, उसे मनः पर्यवज्ञान कहते हैं । मनः पर्यवज्ञान गर्भज कर्मभूमिज संख्यात वर्षायुष्यक पर्याप्त सम्यग्दृष्टि अप्रमत्त ऋद्धिप्राप्त संयत मनुष्य को ही होता है। इसके मुख्य रूप से दो भेद होते हैं ऋजुमति जो सामान्य रूप से मनोद्रव्य को जानता है, वह ऋजुमति मनः पर्यवज्ञान है । जैसेकि अमुक व्यक्ति ने घट का चिन्तन किया है। है । अमुक व्यक्ति ने घड़े का चिन्तन किया है, वह काल आदि को जानना विपुलमति मनः पर्यवज्ञान है।
विपुलमति उससे विशेषग्राही ज्ञान विपुलमति घड़ा सोने का बना हुआ है इत्यादि द्रव्य, क्षेत्र,
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इस ज्ञान में दूसरे की मन की पर्यायों को जाना जाता है। इस ज्ञान के सम्बन्ध में प्रमुखतः दो मान्यताएं है - प्रथम मान्यता के अनुसार मनः पर्यवज्ञान द्वारा मन का प्रत्यक्ष होने के साथ मन के द्वारा चिन्तित अर्थ का सीधा प्रत्यक्ष होता है । इस मत का मुख्य रूप से दिगम्बराचार्यों ने समर्थन किया है। मनःपर्यवज्ञानी तीनों कालों के विचार, वाणी और वर्तन को जान सकता है। दूसरी मान्यता जिनभद्रगणि आदि श्वेताम्बराचार्यों की है, जिसके अनुसार मनोगत अर्थ का विचार करने से जो मन की दशा होती है, उस दशा अथवा पर्यायों को मनः पर्यायज्ञानी प्रत्यक्ष जानता है । किन्तु उन दशाओं में जो अर्थ रहा हुआ है, उसको वह अनुमान से जानता है ।
मनः पर्यवज्ञान के इस प्रकरण में यह प्रश्न उठाया गया है कि मतिज्ञान के पूर्व जिस प्रकार चक्षुदर्शन अथवा अचक्षुदर्शन होते हैं, अवधिदर्शन के पूर्व अवधिदर्शन तथा केवलज्ञान के पूर्व केवलदर्शन होता है, उसी प्रकार मनः पर्यव ज्ञान का दर्शन क्यों नहीं होता है ? इस प्रश्न का समाधान