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सप्तम अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान
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6. केवलज्ञान से विनष्ट व अनुत्पन्न पदार्थ भी जाने जाते हैं। प्रश्न यदि केवलज्ञानी विनष्ट और अनुत्पन्न रूप से असत् पदार्थों को भी जानता है तो वह खरविषाण को भी जान सकता है । उत्तर नहीं, क्यूंकि खरविषाण की जिस प्रकार वर्तमान में सत्ता नहीं है, उसी प्रकार उसकी भूत और भविष्यत् में भी सत्ता नहीं होगी, इसलिए उसे नहीं जानता है ।
प्रश्न- यदि अर्थ में भूत और भविष्यत् पर्यायें शक्तिरूप से विद्यमान रहती हैं तो केवल वर्तमान पर्याय को ही अर्थ क्यों कहा जाता है? उत्तर नहीं, क्योंकि जो जाना जाता है उसे अर्थ कहते हैं' इस व्युत्पत्ति के अनुसार वर्तमान पर्यायों में ही अर्थपना पाया जाता है। अतः अनागत और अतीत पर्यायों का ग्रहण वर्तमान अर्थ के ग्रहण पूर्वक होता है 1272
प्रश्न - जो पदार्थ नष्ट हो चुके हैं और जो पदार्थ अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं, उनको केवलज्ञान से कैसे जाना जा सकता है ?
उत्तर नहीं, क्योंकि केवलज्ञान के सहाय निरपेक्ष होने से बाह्य पदार्थों की अपेक्षा के बिना उनके (विनष्ट और अनुत्पन्न के) ज्ञान की उत्पत्ति में कोई विरोध नहीं है और केवलज्ञान में विपर्ययज्ञान का भी प्रसंग नहीं आता है क्योंकि वह यथार्थ स्वरूप को पदार्थों से जानता है और न ही गधे के सींग के साथ व्याभिचार दोष आता है, क्योंकि वह अत्यंत अभाव रूप है 7 केवलज्ञान की स्व-पर प्रकाशकता
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1. केवलज्ञानी निश्चय से स्व को और व्यवहार से पर को जानते हैं - व्यवहार नय से केवली भगवान् सबको जानते हैं और देखते हैं। निश्चय नय से केवलज्ञानी आत्मा को जानते हैं और देखते हैं निश्चय से पर को नहीं जानने का तात्पर्य उपयोग का पर के साथ तन्मय नहीं होना है केवली भगवान् सर्वात्म प्रदेशों से अपने को ही अनुभव करते रहते हैं, इस प्रकार वे परद्रव्यों से सर्वथा भिन्न हैं । अथवा केवली भगवान् को सर्व पदार्थों का युगपद् ज्ञान होता है। उनका ज्ञान एक ज्ञेय को छोड़कर किसी अन्य विवक्षित ज्ञेयाकार को जानने के लिए भी नहीं जाता है, इस प्रकार भी वे पर से सर्वथा भिन्न हैं। 275
प्रश्न - यदि केवली भगवान् व्यवहार नय से लोकालोक को जानते हैं तो व्यवहार नय से ही वे सर्वज्ञ हैं, निश्चयनय से नहीं। उत्तर जिस प्रकार तन्मय होकर स्वकीय आत्मा को जानते हैं उसी प्रकार परद्रव्य को तन्मय होकर नहीं जानते, इस कारण व्यवहार नय कहा गया है, न कि उनके परिज्ञान का ही अभाव होने के कारण। यदि स्वद्रव्य की भांति परद्रव्य को भी निश्चय से तन्मय होकर जानते तो परकीय सुख-दुःख को जानने से स्वयं सुखी दुःखी और परकीय राग-द्वेष को जानने से स्वयं में रागी-द्वेषीपना प्राप्त होता, लेकिन ऐसा नहीं होता है। यदि वैसा मानेंगे तो अन्य और भी दूषण प्राप्त हो सकते हैं
केवलज्ञान और केवली के सम्बन्ध में विशिष्ट वर्णन
1. केवलज्ञान- केवलदर्शन उत्पन्न होने एवं नहीं होने के कारण
स्थानांग सूत्र स्थान 4 उद्देशक 2 के अनुसार साधु साध्वियों को चार कारणों से केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न नहीं होते हैं, यथा 1. जो बार बार स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा और राजकथा करता है, 2. विवेक यानी अशुद्ध आहार आदि का त्याग करने से तथा कायोत्सर्ग करने से जो अपनी
272. कसायपाहुडं, पु. 1 गाथा 1, पृ. 19-20
274. नियमसार, गाथा 159
276. परमात्मप्रकाश टीका, पृ. 50
273. षट्खण्डागम, पु. 6, सूत्र 1.9.1.14, पृ. 29-30 275. प्रवचनसार टीका, पृ. 32