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[490] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
उत्तर - केवली सभी पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से जानते और देखते हैं, किन्तु सभी पदार्थों के भावों को वाणी द्वारा कह नहीं सकते। क्योंकि पदार्थ और पदार्थों के भाव अनन्त हैं। उनमें से कितने तो कहने योग्य भी नहीं हैं। आयुष्य सीमायुक्त और अल्प है। समझाने पर भी दूसरे समझने वालों में समझने की शक्ति उतनी नहीं होती, इत्यादि कारणों से वे सभी पदार्थों के भावों को नहीं कह सकते।
तत्त्वार्थभाष्य में केवलज्ञान का स्वरूप विस्तार से बतलाया गया है। केवलज्ञानी सब भावों का ग्राहक, संपूर्ण लोक और अलोक को जानने वाला है। इससे अतिशायी कोई ज्ञान नहीं है। ऐसा कोई ज्ञेय नहीं है जो केवलज्ञान का विषय नहीं हो । उक्त वर्णन के संदर्भ में सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की व्याख्या इस प्रकार फलित होती है - सर्व द्रव्य ज्ञानी का अर्थ है - मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों को जानने वाला। केवलज्ञान के अतिरिक्त कोई भी ज्ञान अमूर्त का साक्षात्कार अथवा प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। संक्षिप्त में कहें तो केवलज्ञान से सभी क्षेत्रगत रूपी-अरूपी सर्वद्रव्यों की त्रिकालगोचर सभी पर्यायों का ज्ञान होता है। दिगम्बर परम्परा में केवलज्ञान का विषय ____ 1. केवलज्ञान सर्व द्रव्य व पर्यायों को जानता है - सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ।64 केवलज्ञान की प्रवृत्ति सर्व द्रव्यों में और उनकी सर्व पर्यायों में होती है। जीव द्रव्य अनंतानंत हैं, पुद्गल द्रव्य इनसे भी अनंतानंत गुणा है जिनके अणु और स्कंध ये दो भेद हैं। धर्मास्तिकाय आदि सब द्रव्यों की पृथक्पृथक् तीनों कालों में होने वाली अनंतानंत पर्यायें हैं। इन सबमें केवलज्ञान की प्रवृत्ति होती है। ऐसा न कोई द्रव्य है और न पर्याय समूह है जो केवलज्ञान के विषय के परे हो। केवलज्ञान का माहात्म्य अपरिमित है, इसी बात का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु' कहा है। ऐसा ही वर्णन भट्ट अकलंक ने भी किया है।66 केवलज्ञान एक द्रव्य की वर्तमान पर्याय के साथ अतीत-अनागत की सभी पर्यायों को जानता है 67
2. केवलज्ञान संपूर्ण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जानता है अर्थात् केवलज्ञानी देवलोक और असुरलोक के साथ मनुष्यलोक की आगति, गति, च्यवन, उपपाद, बंध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग. तर्क, कल, मन, मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरह कर्म, सब लोकों, सब जीवों और सब भावों को सम्यक् प्रकार से युगपत् जानते हैं, देखते हैं और विहार करते हैं।68
3. केवलज्ञान सब कुछ जानता है, क्योंकि केवलज्ञान से न जाना गया हो ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है।69
4. प्रयोजनभूत व अप्रयोजनभूत सबको जानता है - आवरण के क्षय हो जाने पर आत्मा परिमित अर्थों को ही जानता है, ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि प्रतिबंध से रहित और समस्त पदार्थों के जानने रूप स्वभाव से संयुक्त होने पर, परिमित पदार्थों को जानने के साथ विरोध है।70
5. केवलज्ञान में इससे भी अनंतगुणा जानने की सामर्थ्य है - जितना यह लोकालोक स्वभाव से ही अनंत है, उससे भी यदि अनंतानंत विश्व है तो उसको भी जानने की सामर्थ्य केवलज्ञान में है, ऐसा केवलज्ञान का अपरिमित माहात्म्य जानना चाहिए। 263. तत्त्वार्थाधिगम सूत्र, 1.30 वृत्ति, पेज 10
264. ताथसूत्र 1.29 265. सर्वार्थसिद्धि, 1.29 पृ. 96
266. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 1.29.9 पृ. 62 267. षट्खण्डागम, पु. 1, सूत्र 1.1.136, पृ. 199
268. षट्खण्डागम, पु. 13, सूत्र 5.5.82, पृ. 346 269. नियमसार, गाथा 167, षट्खण्डागम, पु. 7, सूत्र 2.1.46, पृ. 89 270. षट्खण्डागम, पु. १, सूत्र 4.1.44, पृ. 118
271. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 1.29.9 पृ. 62