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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
आत्मा को सम्यक् प्रकार से भावित नहीं करता है, 3. जो रात्रि के अन्तिम प्रहर में धर्म जागरणा नहीं करता है, 4. जो प्रासुक एषणीय थोड़ा थोड़ा और सामुदानिक गोचरी से प्राप्त होने वाले आहार की सम्यक् प्रकार से गवेषणा नहीं करता है। इसके विपरीत चार कारणों से साधु अथवा साध्वी को केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हो जाते हैं। यथा - 1. जो स्त्री कथा, भक्त कथा, देश कथा और राजकथा नहीं करता है, 2. जो विवेक यानी अशुद्ध आहार का त्याग करने से और कायोत्सर्ग करने से अपनी आत्मा को सम्यक् रूप से भावित करता है, 3. जो रात्रि के अन्तिम प्रहर में धर्मजागरणा करता है, 4. जो प्रासुक एषणीय थोड़ा थोड़ा सामुदानिक भिक्षाचर्या से प्राप्त होने वाले आहार की सम्यक् प्रकार से गवेषणा करता है। 2. केवलदर्शन उत्पन्न होता हुआ भी प्रथम समय में नहीं रुकने के कारण
स्थानांग सूत्र स्थान 5, उद्देशक 1 में उल्लेख है कि पांच कारणों से अवधिदर्शन उत्पन्न होता हुआ भी प्रथम समय में ही रुक जाता है यथा - 1. थोड़े से जीवों से व्याप्त पृथ्वी को देखकर प्रथम समय में ही रुक जाता है। 2. अत्यन्त सूक्ष्म कुन्थुओं की राशि से भरी हुई पृथ्वी को देखकर प्रथम समय में ही रुक जाता है। 3. महान् शरीर वाले सांप को देखकर भय से या आश्चर्य से प्रथम समय में ही रुक जाता है। 4. महर्द्धिक देव यानी देवता की महान् ऋद्धि को यावत् महान् सुखों को देखकर आश्चर्य से प्रथम समय में ही रुक जाता है। 5. प्राचीन काल के बहुत से ऐसे महान् निधान जिनके स्वामी, उनके पुत्रादि, पहचानने के चिह्न नष्ट हो गये हैं, ऐसे घर, भवन आदि में जो निधान गड़े हुए हैं उनको देखकर आश्चर्य से अथवा लोभ से प्रथम समय में ही रुक जाता है। इन पांच कारणों से अवधिदर्शन उत्पन्न होता हुआ भी प्रथम समय में ही रुक जाता है।
पांच कारणों से केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न होते हुए प्रथम समय में रुकते नहीं है यथा अल्पभूत पृथ्वी को देखकर प्रथम समय में ही रुकते नहीं है। शेष सारा वर्णन ऊपर के समान कह देना चाहिये यावत् भवनों और घरों में जो निधान गड़े हुए हैं उनको देखकर प्रथम समय में उत्पन्न होते हुए केवलज्ञान, केवलदर्शन रुकते नहीं हैं। 3. छद्मस्थ और केवलज्ञानी में अन्तर
स्थानांग स्थान 5, उद्देशक 3, स्थान 6 एवं स्थान 10 के अनुसार छद्मस्थ जीव दस बातों को सब पर्यायों सहित न जान सकता है और न देख सकता है यथा - 1. धर्मास्तिकाय 2. अधर्मास्तिकाय 3. आकाशास्तिकाय 4. वायु 5. शरीर रहित जीव 6. परमाणु पुद्गल 7. शब्द 8. गन्ध 9. यह पुरुष प्रत्यक्ष ज्ञानशाली केवली होगा या नहीं 10. यह पुरुष सर्व दु:खों का अन्त कर सिद्ध बुद्ध यावत् मुक्त होगा या नहीं। अतिशय ज्ञान रहित छद्मस्थ सर्व भाव से इन बातों को जानता और देखता नहीं है। यहाँ पर अतिशय ज्ञान रहित विशेषण देने का यह अभिप्राय है कि अवधिज्ञानी छद्मस्थ होते हुए भी अतिशय ज्ञानी होने के कारण परमाणु आदि को यथार्थ रूप से जानता और देखता है, किन्तु अतिशय ज्ञान रहित छद्मस्थ जान या देख नहीं सकता है। किन्तु केवलज्ञान केवलदर्शन के धारक अरिहन्त जिन केवली उपर्युक्त दस ही बातों को सर्वभाव से जानते हैं और देखते हैं । 4. छमस्थ और केवलज्ञानी की पहचान
स्थानांग सूत्र स्थान 7 के अनुसार सात बातों से छद्मस्थ की पहचान की जा सकती है यथा - 1. जानते या अजानते कभी छद्मस्थ से हिंसा हो जाती है क्योंकि चारित्र मोहनीय कर्म के कारण वह चारित्र का पूर्ण पालन नहीं कर सकता है। 2. छद्मस्थ से कभी न कभी असत्य वचन बोला जा सकता