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[486] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन दोनों उपयोग युगपत् नहीं होते, यह सर्वग्राह्य सिद्धान्त है। अतः अन्वय और व्यतिरेक दोनों प्रकार से यह सिद्ध होता है कि केवली के युगपत् दोनों उपयोग नहीं होते हैं।247
समीक्षा - तीनों मतों में सबसे प्राचीन मत भी क्रमवाद वाला ही प्रतीत होता है, क्योंकि सर्वप्रथम तत्त्वार्थभाष्य में युगपद्वाद का उल्लेख मिलता है।48 तत्त्वार्थसूत्र से पूर्ववर्ती साहित्य में क्रमवाद का ही उल्लेख प्राप्त होता है। निष्कर्ष यह है कि तर्क से भी आगम सर्वोपरि है । अत: आगमपक्ष के अनुसार केवलज्ञान केवलदर्शन का प्रयोग क्रमश: ही मानना चाहिये।
आचार्य मलयगिरि ने तीनों मतों के पक्ष-विपक्ष के बार में विस्तार से वर्णन किया है। इस टीका का भावार्थ उपाध्याय आत्मारामजी महाराज ने नंदीसूत्र की व्याख्या में किया है।49 अतः विशेष शोधार्थियों को वह स्थल भी देखना चाहिए।
प्रश्न - केवलज्ञान के उपयोग का स्थिति काल कितना है?
उत्तर - प्रज्ञापनासूत्र (कायस्थिति पद) एवं जीवाजीवाभिगमसूत्र में साकार अनाकार उपयोग की स्थिति अन्तर्मुहूर्त ही मिलती है। आगम के मूलपाठ में केवलज्ञान केवलदर्शन की एक समय की स्थिति देखने में नहीं आई है। टीकाकार श्री मलयगिरिजी ने दोनों स्थलों पर केवलज्ञान-केवलदर्शन के उपयोग का स्थितिकाल एक समय का ही माना है। जिसकी यहाँ विवक्षा नहीं की गई है, ऐसा मान सकते हैं। मलयगिरि को इस प्रकार की पूर्व परम्परा प्राप्त हुई होगी, जिसके आधार पर ही उन्होंने एक समय की स्थिति बताई हो, सर्व जीवों की प्रतिपत्ति में भी केवलज्ञान-दर्शन की एक समय की स्थिति नहीं बताने का कारण विचित्र सूत्रगतिः लिखा है। आगमकार भी पवाएणं पवायं जाणेज्जा कहते हैं। इसलिए इसे एकान्त आगम के विपरीत नहीं कह सकते हैं किन्तु यह गवेषणीय है। दिगम्बर साहित्य में तो केवलज्ञान-केवलदर्शन के उपयोग काल की स्थिति जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त मानी गई है। जघन्य उपयोग काल से उत्कृष्ट उपयोग काल को संख्यातगुणा माना है। क्षायिक ज्ञान हो जाने के बाद भी उपयोग काल में जघन्य-उत्कृष्ट काल लगने का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। इसलिए उसे भी विचारणीय समझा जाता है।
मुनि जम्बूविजय द्वारा सम्पादित विशेष्यावश्यकभाष्य में केवलज्ञान-केवलदर्शन के अभेद-युगपद् वाद का खण्डन किया गया है और क्रमवाद की स्थापना की गई है। इस वर्णन में भी मुनि जम्बूविजय ने केवलज्ञान का उपयोग काल विशेष्यावश्यकभाष्य के अनुसार अन्तर्मुहूर्त का बताया है। वहाँ पर जीवाभिगम के सर्व जीवप्रतिपत्ति के आधार युगपद्वाद का खण्डन मात्र किया है। यदि युगपद् उपयोग होता तो सर्व जीव प्रपिपत्ति में साकार-अनाकार उपयोग की स्थिति अन्तर्मुहूर्त नहीं बताते। अन्तर्मुहूर्त के बाद में उपयोग बदलता ही है। तभी अन्तर्मुहूर्त की स्थिति, इत्यादि बताया है। कुछ भी सुस्पष्ट नहीं होने से आगम के विरुद्ध की अपेक्षा मतान्तर कहना अधिक उचित लगता है। केवली में केवलज्ञान के साथ श्रुतज्ञान भी होता है?
तीर्थकर भगवान् केवलज्ञान के बाद सभी जीवों के हित के लिए देशना फरमाते हैं। यह देशान अक्षरध्वनि रूप द्रव्य श्रुत है और द्रव्यश्रुत भावश्रुत के बिना नहीं हो सकता इसलिए केवली में
247. बन्ध तत्त्व, पृ. 83 248. मतिज्ञानादिषु चतुर्पु पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपद् । संभिन्नज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपद् सर्वभावग्राहकके
निरपेक्षकेवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति। - तत्वार्थभाष्य 1.31 249. उपाध्याय आत्मारामजी महाराज. नंदीसूत्र, पृ. 149-155