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सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान
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है। यदि केवली में युगपद् दो उपयोग होते हैं तो साकार, अनाकार और मिश्र-उपयोगवाले जीवों की, इस तरह तीन प्रकार से जीवों की अल्पबहुत्व बताते ।41
आपका ऐसा मानना है कि जो सूत्र छद्मस्थ जीवों की अपेक्षा से है, उसका केवली से संबंध नहीं है, तो यह अयोग्य है। क्योंकि प्रज्ञापना सूत्र के तीसरे पद में सभी जीवों की संख्या का अधिकार है। सभी जीवों की संख्या संबंधी यह अधिकार नहीं होता तो 'गइ इंदिए य काए जोए वेए कसायलेसासु' आदि में अल्पबहुवक्तव्यता विचार से संबंधी सभी पदों में सिद्ध (अनीन्द्रिय, अकाय, अयोगी, अवेदी, अकषायी, अलेश्यी आदि) को अलग ग्रहण किया है। केवल उपयोग पद में उसका अलग ग्रहण नहीं किया गया है, तो इसका क्या कारण है? आप कहो कि यह छद्मस्थ का अधिकार है, इसलिए उसका अलग से ग्रहण नहीं किया गया है, तो फिर आपके अनुसार शेष पदों में जो सिद्ध को अलग ग्रहण किया वह अयुक्त हो जाएगा। अत: यह अधिकार सभी जीवों की अपेक्षा से हैं।42
अथवा यह जीवाभिगम सूत्र में बताई अल्पबहुत्व हुई है कि सिद्ध और असिद्धादि जीव दो प्रकार के हैं। ऐसा सूत्र में कहा है, उसकी गाथा निम्न प्रकार से है -
सिद्धसइंदियकाए जोए वेए कसाय लेसा य। नाणुवओगाहारय-भासय-ससरीर-चरिमे य।।43
अर्थात् सिद्ध-असिद्ध, सइन्द्रिय-अनीन्द्रिय, सकाय-अकाय इत्यादि सभी जीवों का आश्रय लेकर सूत्र कहा है। तथा ज्ञान-अज्ञान (साकार) और दर्शन (अनाकार) का उपयोग काल सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त का ही बताया है। किसी भी स्थान पर सादि-अपर्यवसित नहीं कहा है। जैसेकि सिद्धादि भावों का सादि-अपर्यवसित उल्लेखित है, उसी प्रकार यदि साकार-अनाकार रूप मिश्र उपयोग होता तो उसका भी सादि-अपर्यवसित काल बताया जाता। लेकिन ऐसा कहीं पर भी उल्लेख प्राप्त नहीं होता है इसलिए आगमानुसार हमें यही मानना चाहिए कि जीवों के युगपद् (उभय) उपयोग नहीं होता हैं 44 यदि फिर भी हमारी एकान्तर उपयोग मानने में अभिनिवेश बुद्धि है, तो मानना नहीं मानना आपकी मर्जी है। लेकिन क्रमिक उपयोग ही जिनेश्वर का मत है। उसको अन्यथा करने में हम शक्तिमान नहीं हैं। जिस प्रकार पारिणामिक भाव से जीव का जीवत्व होना स्वभाव है, उसी प्रकार जीवों के एकान्तर उपयोग भी पारिणामिक होने से स्वभाव रूप ही है 45
उपाध्याय यशोविजय (17-18वीं शती) ने तीनों वादों की समीक्षा की है और नय दृष्टि से उनका समन्वय करने का प्रयत्न किया है। जैसे कि ऋजुसूत्र नय के दृष्टिकोण से एकान्तरउपयोगवाद उचित जान पड़ता है। व्यवहारनय के दृष्टिकोण से युगपद्-उपयोगवाद संगत प्रतीत होता है। संग्रहनय से अभेद-उपयोगवाद समुचित प्रतीत होता है।46
अर्वाचीन विद्वान् श्री कन्हैयालालजी लोढा का मत है कि जो भी युक्तियाँ केवली के युगपत् उपयोग के समर्थन में दी जायेंगी वे सब युक्तियां छद्मस्थ पर भी लागू होंगी और छद्मस्थ के भी दोनों उपोयग युगपत् मानने पडेंगे, जो श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों परम्पराओं को मान्य नहीं है। अतः केवली के दोनों उपयोग युगपत् मानने में विरोध आता है। इसी प्रकार छद्मस्थ जीव के दोनों उपयोग युगपत् नहीं मानने के लिए जो भी युक्तियाँ दी जायेंगी, वे केवली पर भी लागू होंगी और केवली के 241. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3124-3125
242. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3126-3127 243. युवाचार्य मधुकरमुनि, जीवाजीवाभिगम सूत्र भाग 2, पृ. 178, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3129 244. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3128-3132
245. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3133-3135 246. ज्ञानबिंदुप्रकरणम् पेज 33-43