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सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान
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श्रुतज्ञान का प्रसंग उपस्थित होगा? संभवत नियुक्तिकाल में यह प्रश्न उपस्थित हुआ होगा? इसका समधान करने के लिए नियुक्ति के आधार पर भाष्यकार केवलज्ञानियों में श्रुतज्ञान होने की भ्रांन्ति को दूर करने के लिए कहते हैं कि
केवलणाणेणऽत्थे, नाउं जे तत्थ पण्णवणजोगे। ते भासइ तित्थयरो, वइजोग सुयं हवइ सेसं॥
अर्थात् केवली (तीर्थंकर) अर्थ को जानकर उसमें से जो अर्थ कहने योग्य होता है, उसे कहते हैं, उनका इस प्रकार बोलना वचन योग है, लेकिन वही बाकी जीवों के लिए श्रुत है 50
तीर्थकर आदि केवलज्ञान से मूर्त, अमूर्त, अभिलाप्य अथवा अनभिलाप्य धार्मास्तिकाय आदि सभी पदार्थों को जानते हैं। उन पदार्थों में से कहने योग्य अर्थ को कहते हैं। तीर्थंकर आदि जो भी कथन करते हैं, वह श्रुतज्ञान के उपयोग से नहीं करते हैं। क्योंकि श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक है और केवलज्ञान क्षायिक है। जैसे किसी का कथन है कि सर्वथा शुद्ध वस्त्र में थोड़ी शुद्धि है, तो ऐसा कथन अयोग्य है। उसी प्रकार पहले केवलज्ञान से जाने और बाद में श्रुतज्ञान से कथन करे ऐसा जो भी मानते हैं तो उनका मानना अनुचित है। क्योंकि केवलज्ञानी जितना अभिलाप्य अर्थ जानते हैं, उसमें से भी छद्मस्थ जितना ग्रहण कर सकते हैं, उतना ही कथन करते हैं और अनभिलाप्य अर्थ का तो कथन ही नहीं करते हैं। इस कारण यह है कि अभिलाप्य (कह सके ऐसा) अर्थ (पदार्थ) अनन्त होते हैं, जिनको वचन द्वारा नहीं कहा जा सकता है। आयु भी सीमित होती है और पदार्थ अनन्तअनन्त होते हैं और सभी पदार्थों का वर्णन करना उनकी शाक्ति के बाहर होता है। अत: केवलज्ञानी, केवलज्ञान से जितना जानते हैं, उस ज्ञान का अनन्तवाँ भाग ही शब्द द्वारा प्रकट करते हैं। शेष अनन्त गुण ज्ञान ऐसा है जो शब्द द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अक्षर और अक्षर संयोग सीमित है। कहने योग्य पदार्थ अभिलाप्य और शेष अनभिलाप्य पदार्थ हैं। उसमें भी केवली ग्राहक (ग्रहण करने वाले) की योग्यता (क्षमता) के अनुसार ही ग्रहण करने योग्य अर्थ को कहते हैं, अयोग्य अर्थ को नहीं कहते हैं। इसलिए सारे अभिलाप्य अर्थ का भी कथन नहीं कर पाते हैं, तो अनभिलाप्य अर्थ तो कैसे कहेंगे? अत: केवलज्ञान से जाने हुए, योग्य अर्थ को कहने के लिए शब्दों का समूह केवली के नामकर्म के उदय से वचन योग है, न कि श्रुतज्ञान है। क्योंकि श्रुतज्ञान तो क्षायोपशमिक ज्ञान है और केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान है, इसलिए यह भावश्रुत नहीं है 51
प्रश्न - वचनयोग अथवा वचनपरिस्पंद अथवा वचनवीर्य, यह भले ही नाम कर्म के उदयजन्य होते हैं, परन्तु उपदेश देते समय केवली के पुद्गलात्मक शब्द किस रूप होते हैं?
उत्तर - ये शब्द भी सुनने वालों के भावश्रुत का कारण होने से द्रव्यश्रुत ही हैं, लेकिन भावश्रुत नहीं। जिन छदमस्थ गणधरादि का श्रुतग्रंथ के अनुसार ज्ञान है, वही केवलिगत ज्ञान की अपेक्षा भावश्रुत है। लेकिन केवली का ज्ञान भावश्रुत नहीं है, भावश्रुत क्षायोपशमिक होता है और केवली का ज्ञान तो क्षायिक होता है। जिन शब्दों को बोलने के बाद सुनकर श्रोता जिनका विचार करता है, यह उसका भाव श्रुत है और केवली बोलते है, यह उनके वचन योग होता है, श्रुतज्ञान नहीं। केवली जिन शब्दों का उच्चारण करते हैं, वे वचनश्रुत नहीं है, परन्तु वे शब्द सुनने वालों के ही ज्ञान का कारण होते हैं, इस उपचार से वे श्रुत हैं। जिस समय शब्दों को बोला जाता है, उस समय वह श्रुत नहीं है। केवली संबंधी वचनयोग औपचारिक होने से गौणभूत श्रुत है। इस सम्बन्ध में कुछ आचार्यों का मत 250. आवश्यकनियुक्ति गाथा 78, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 829 251. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 829 की बृहद्वृत्ति का भावार्थ