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सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान
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प्रश्न - जब जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन का है तो फिर नीचा तिरछा क्यों जाता है?
उत्तर - जीव का स्वभाव तो ऊर्ध्वगमन का ही है, किन्तु कर्म उदय सहित जीव जब चारों गतियों में से किसी एक गति में जाता है तब आनुपूर्वी नाम कर्म के उदय के वश जीव नीचा, तिरछा जाता है।
प्रश्न - आनुपूर्वी नाम कर्म किसको कहते हैं?
उत्तर - जिस प्रकार ऊंट या बैल सीधी सड़क से जाता है। किन्तु जब उसका मालिक अपने खेत आदि में ले जाता है तब ऊंट की नकेल और बैल की नथ (नाथ) को खींच कर अपने इष्ट स्थान खेत आदि पर ले जाता है इसी प्रकार जीव जब एक भव का आयुष्य पूरा कर दूसरे भव में जाता है तब आनुपूर्वी नाम कर्म का उदय होता है। वह उस जीव को खींच कर उस स्थान पर ले जाता है जहाँ का आयुष्य बांध रखा है। यह जीव की परवशता है।
प्रश्न - आनुपूर्वी नाम कर्म के कितने भेद हैं और वह कब उदय में आता है?
उत्तर - आनुपूर्वी नामकर्म के चार भेद हैं, यथा नरकानुपूर्वी नामकर्म, तिर्यञ्चानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी और देवानुपूर्वी । अपने आयुष्य बन्ध के अनुसार जीव को ये आनुपूर्वियां उस उस गति में ले जाती हैं। इसलिये जीव की नीची और तिरछी गति होती है। इस कर्म का उदय तब ही होता है जब जीव को नया जन्म लेने के लिये विषम श्रेणि में रहे हुए जन्म स्थान के विग्रह गति (मोड़ वाली गति) द्वारा अपने नये जन्म स्थान पर जाता है। इस कर्म का उदय विग्रह गति में ही होता है। अतः इसका अधिक से अधिक उदय काल तीन या चार समय मात्र का है। समश्रेणि से गमन करते समय आनुपूर्वी नाम कर्म उदय की आवश्यकता ही नहीं है। सिद्धों के रहने का स्थान
उत्तराध्ययन सूत्र (अध्ययन 36) के अनुसार सर्वार्थसिद्ध विमान के बारह योजन ऊपर उत्तान छत्र के आकार की ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी पैंतालीस लाख योजन लम्बी है और उतनी ही अर्थात् पैंतालीस लाख योजन ही विस्तीर्ण (चौड़ी) है। वह सिद्धशिला मध्य में आठ योजन मोटी कही गई है और चारों ओर से कम होती हुई अन्त में मक्खी के पंख से भी पतली हो गई है। उस सीता (ईषत्प्रारभारा) पृथ्वी से एक योजन ऊपर लोक का अन्त कहा गया है, वहाँ योजन का जो ऊपर वाला कोस है, उस कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना (अवस्थिति) है, संसार के प्रपंच से मुक्त सिद्धिरूप श्रेष्ठ गति को प्राप्त हुए महा भाग्यशाली सिद्ध भगवान् वहाँ लोक के अग्रभाग पर प्रतिष्ठित-विराजमान हैं।
सब शाश्वत वस्तुओं का परिमाण प्रमाण अंगुल से बतलाया गया है। किन्तु जो यहाँ पर बतलाया गया है कि - ईषतप्राग्भारा पृथ्वी से एक योजन ऊपर लोक का अन्त होता है। यह ऊपर का एक योजन उत्सेधांगुल से लेना चाहिये। उस योजन के (चार कोस का एक योजन) ऊपर के कोस के छठे भाग में सिद्ध भगवन्तों का अवस्थान है। चार गति के जीवों की अवगाहना उत्सेधांगुल से बताई गई है। मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना वाले अर्थात् 500 धनुष्य वाले सिद्ध हो सकते हैं। उन 500 धनुष्य वालों की अवगाहना सिद्ध अवस्था में 333 धनुष्य और 32 अङ्गल (एक हाथ आठ अङ्गल) ही होती है। यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना है। इसलिये ऊपर के एक योजन का परिमाण उत्सेध अङ्गल से लेने पर यह सिद्धों की अवगाहना ठीक बैठ सकती है। उत्सेध अङ्गल से प्रमाण अङ्गल 1000 गुणा बड़ा होता है। चौबीस अंगुलों का एक हाथ होता है। चार हाथ का एक धनुष होता है। दो हजार धनुष का एक कोस होता है। इसका छठा भाग 32 अंगुल युक्त 333 धनुष होता है। इतनी जगह में सिद्धों का निवास है।