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[476] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन में सिद्ध शिला पर पहुँच कर अवस्थित हो जाता है। जीव की वह सर्व कर्म विमुक्त दशा सिद्ध अवस्था अथवा सिद्धि गति कहलाती है ।
सब कर्मों का बन्धन टूटते ही जीव में चार बातें घटित होती हैं - १. औपशमिक आदि भावों का क्षय होना २. शरीर का छूट जाना ३. मात्र एक समय में सिद्ध शिला से ऊपर तक ऊर्ध्व गति से गमन ४. लोकान्त में अवस्थिति।
प्रश्न -मुक्त जीव ऊर्ध्व दिशा में ही गमन क्यों करता है? तथा उस गमन क्रिया के क्या कारण हैं? उत्तर - जीव के ऊर्ध्व दिशा में गति करने के कारण ये हैं -
१. पर्व प्रयोग - "पूर्व" यानी पहले के प्रयोग से। प्रयोग का यहाँ अर्थ है "आवेग"। जिस प्रकार कुम्हार का चाक (पहिया या चक्र) दण्ड को हटा लेने के बाद भी कुछ देर तक स्वयं ही घूमता रहता है। उसी प्रकार मुक्त जीव भी पहले के बन्धे हुए कर्मों के छूट जाने के बाद भी उनके निमित्त से प्राप्त आवेग के द्वारा गति करता है।
२. संग रहितता - जीव की स्वाभाविक गति ऊर्ध्व है किन्तु कर्मों के संग (सम्बन्ध) के कारण उसे नीची अथवा तिरछी गति भी करनी पड़ती है। कर्मों का संग तथा सम्बन्ध टूटते ही वह अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्व गति से गमन करता है।
३. बन्धन का टूटना - संसारी अवस्था में जीव कर्मों के बन्धन से बन्धा रहता है। उस बन्धन के टूटते ही जीव अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्व गति से गमन करता है।
४. तथागति परिणाम - जीव की स्वाभाविक गति ऊर्ध्व ही है अर्थात् ऊर्ध्व गमन जीव का स्वभाव ही है।194
जीव के ऊर्ध्व गमन स्वभाव को समझाने के लिये ज्ञाता सूत्र के सातवें अध्ययन में तुम्बे का दृष्टान्त दिया गया है। जिस प्रकार सूखे तुम्बे पर डोरी लपेट कर और उस पर आठ बार मिट्टी का लेप कर उसे गहरे पानी में छोड़ दिया जाय तो वह भारी होने के कारण पानी के तल में पहुँच जाता है, किन्तु ज्यों ज्यों मिट्टी का लेप गलता जाता है त्यों त्यों वह तुम्बा हलका होकर ऊपर उठने लगता है। सब लेप गल जाने पर वह सीधा उठ कर पानी की सतह पर आ जाता है। इसी प्रकार कर्मों से मुक्त आत्मा भी कर्मबन्ध के टूटते ही ऊर्ध्वगमन करता है। दूसरा दृष्टान्त अग्नि शिखा का दिया जाता है - अग्निशिखा का स्वभाव ऊर्ध्व गमन है। उसी प्रकार मुक्त आत्मा का स्वभाव भी ऊर्ध्व गमन है। तीसरा दृष्टान्त एरण्ड के बीज का दिया जाता है। जैसे की एरण्ड के बीज पर लगा हुआ फल का आवरण सूखने पर फट जाता है, तो बीज तुरन्त ही उछल कर ऊपर को जाता है इसी प्रकार कर्म मुक्त आत्मा भी ऊपर की ओर जाती है।95
प्रश्न - यदि मुक्त आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्व गमन का है तो वह लोकान्त पर जाकर ही क्यों रूक जाता है? आगे अलोक में गमन क्यों नहीं करता?
उत्तर - ठाणाङ्ग सूत्र के चौथे ठाणे में बतलाया है कि चार कारणों से जीव और पुद्गल लोक के बाहर नहीं जा सकते हैं - १. आगे गति का अभाव होने से, २. उपग्रह (धर्मास्तिकाय) का अभाव होने से, ३. लोक के अन्त में परमाणु के अत्यंत रूक्ष हो जाने से, ४. और अनादि काल का स्वभाव होने से। इस प्रकार इन चार कारणों से मुक्त जीव अलोक में नहीं जा सकता, इसलिये लोकान्त में जाकर सिद्ध स्थान में ही ठहर जाता है। 193. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3088, प्रज्ञापनासूत्र, 36वां समुद्घात पद, उत्तराध्ययनसूत्र, अ. 29.73 194. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3140-3141
195. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3142-3144