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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
जीव के सिद्ध होने के बाद की अवगाहना
जघन्य दो हाथ एवं उत्कृष्ट 500 धनुष्य के अवगाहना वाले मनुष्य सिद्ध होते हैं। तीर्थङ्कर भगवन्तों की जघन्य अवगाहना सात हाथ से कम की नहीं होती है। उत्तराध्ययनसूत्र (अध्ययन 36, गाथा 65) के अनुसार जिस भव में जीव सिद्ध होता है उसकी जितनी अवगाहना होती है उसके तीन विभाग करने पर सिद्ध की अवगाहना दो भाग रहती है एक भाग कम हो जाती है। अत: सामान्य केवली (दो हाथ की अवगाहना वाले) की सिद्ध अवस्था में एक हाथ आठ अङ्गल अवगाहना रह जाती है। यह सिद्ध की अवगाहना सामान्य केवली की अपेक्षा जघन्य है। तीर्थङ्कर भगवन्तों की अपेक्षा सिद्ध भगवन्तों की अवगाहना चार हाथ सोलह अङ्गल रह जाती है। यह तीर्थङ्करों की अपेक्षा सिद्धों की जघन्य अवगाहना है। उत्कृष्ट पांच सौ धनुष्य वालों की अपेक्षा सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तेतीस धनुष्य बत्तीस अङ्गल (एक हाथ आठ अङ्गल) रह जाती है। इस प्रकार सिद्धों की जघन्य अवगाहना दो प्रकार की उत्कृष्ट अवगाहना एक प्रकार की कहनी चाहिये। इसके बीच की जितनी अवगाहना है वे सब मध्यम अवगाहना है। इसलिये मध्यम अवगाहना एक प्रकार की नहीं कहनी चाहिये। जैसे कि - भगवान् पार्श्वनाथ की अवगाहना नौ हाथ की थी। सिद्ध अवस्था में छह हाथ की अवगाहना रह गई है । इस प्रकार एक हाथ आठ अङ्गल से ऊपर की अवगाहना से लेकर तीन सौ तेतीस धनुष्य बत्तीस अङ्गल से कुछ कम तक सब मध्यम अवगाहना है। सिद्धों का सुख
उत्तराध्ययनसूत्र (अध्ययन 36, गाथा 67) के अनुसार सिद्ध जीव अरूपी जीव प्रदेशों से सघन ज्ञान-दर्शन सहित हैं और ऐसे अतुल सुख को, प्राप्त हुए हैं, जिसकी उपमा नहीं दी जा सकती अर्थात् सिद्ध भगवान् ऐसे अनन्त आत्मिक सुख युक्त हैं कि जिसकी उपमा संसार के किसी भी पदार्थ से नहीं दी जा सकती। सिद्धावस्था में जीव की स्थिति
जीव जिस अवस्था में सिद्ध होता है, क्या वही अवस्था सिद्ध होने के बाद भी रहती है अथवा परिवर्तित होती है? इस शंका का समाधान यह है कि केवली समुद्घात खडे, बैठे, सोकर किसी भी आसन से किया जा सकता है। प्रथम के चार समय में अवगाहना का विकोचन एवं अन्तिम चार समयों में अवगाहना का संकोचन करते हैं। सिद्धावगाहना का निर्माण करने के लिए शरीर गत आत्मप्रदेशों का संकोचन तो केवलीसमुद्घात में नहीं होकर योग निरोध के समय शुक्ल ध्यान के तीसरे पाये में तेहरवें गुणस्थान में होता है। शरीर सोया, बैठा, घाणी में पिलता किसी भी स्थिति में हो आत्मप्रदेशों का घन खड़ा ही बनता है। क्योंकि आगम मे अवगाहना का पर्यायवाची शब्द 'उच्चत्त' (उच्चत्व) मिलता है, जिसका अर्थ ऊंचाई होता है। इस पाठ से एवं औपपातिक प्रज्ञापनादि में सिद्धगण्डिका की बावीस गाथाओं में से चौथी गाथा में चरम भव में लम्बा (दीर्घ) या ठिगना (ह्रस्व), बड़ा, छोटा जैसा भी आकार होता है, उससे तिहाई भाग कम में सिद्धों की अवगाहना होती है।
दीहं वा हस्सं वा, जं चरिमभवे हवेज संठाणं, तत्तो तिभागहीणं, सिद्धाणोगाहणा भणिया। 96
अर्थात् जैसा संस्थान होता है, उससे त्रिभाग हीन सिद्धों की अवगाहना होती है। इस गाथा में दीर्घता और ह्रस्वता से त्रिभागहीन सिद्धों की अवगाहना बतायी गयी है। इस आगम पाठ के आधार पर ही सिद्धों की खड़ी अवगाहना समझी जाती है। अन्य आसन मानने पर उच्चत्व त्रिभागन्यून से भी कम