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________________ सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान [461] उत्पत्ति के प्रथम समय में कोई भी जीव परभव का आयुष्य नहीं बांधता है। अतः अन्तरोपपन्नक मनुष्य के भी पहले अगले भव का आयुष्य बांधा हुआ नहीं हो सकता है। अत: कोई नपुंसक मनुष्य उत्पन्न हुआ है और उसमें उत्पत्ति के प्रथम समय से ही उसमें चौथा भंग है, तो यह मनुष्य जन्म से नपुंसक ही होगा। क्योंकि उत्पत्ति के प्रथम समय में जीव कृत्रिम नपुंसक नहीं हो सकता है। उत्पत्ति के प्रथम समय में अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना होती है, उस समय कृत्रिम नपुसंकता तो हो ही नहीं सकती है। अतः अनंतरोपपन्नक नपुंसक मनुष्य जन्म नपुसंक ही है। चौथे भंग के अनुसार वह किसी भी गति का आयु नहीं बांधता हुआ, उसी भव में मोक्ष जायेगा। यदि आगमकारों को नपुंसक का उसी भव में मोक्ष इष्ट नहीं होता तो वे कृष्ण पाक्षिक अनन्तरोपपन्नक मनुष्य के समान नपुंसक अनन्तरोपपन्नक मनुष्य में भी मात्र तीसरा भंग ही बताते, किन्तु आगमकारों ने नपुंसक अनन्तरोपपन्नक मनुष्य में आयुकर्म की अपेक्षा से मात्र चौथा भंग भी स्वीकार किया है। अत: इस प्रकार जन्म नपुंसक का मोक्ष जाना सिद्ध होता है। कुछ व्याख्याकार भगवती सूत्र के उपुर्यक्त पाठ का विरोध स्थानांग और बृहत्कल्प के आधार पर करते हैं, क्योंकि स्थानांग सूत्र के अनुसार तीन प्रकार के व्यक्तियों को प्रव्रजित करना नहीं कल्पता है - पंडक, वातिक, और क्लीब।25 ऐसा ही वर्णन बृहत्कल्प सूत्र26 में भी है। लेकिन दोनों स्थलों के मूलपाठ से जन्मनपुंसक और कृत्रिमनपुंसक की स्पष्टता नहीं होती है। मात्र वहाँ पर नपुंसक को दीक्षा देने का निषेध किया है। उपर्युक्त वर्णन में स्थानांगादि में नपुंसक को दीक्षा देने का निषेध किया है एवं भगवती सूत्र के 26वें शतक से नपुंसक (पंडक) को दीक्षा देना ध्वनित होता है। इस प्रकार आगम पाठों में विरोध उत्पन्न होता है। अतः दोनों पाठों की संगति बिठाने के लिए ऐसा माना जाता है कि अनतिशयी (सामान्यज्ञानी) छद्मस्थ जन्म एवं कृत्रिम नपुंसक को दीक्षा नहीं दे सकते हैं। अतिशयी (विशिष्टज्ञानी) छद्मस्थ उन्हें दीक्षा दे सकते हैं। इस संगति से स्थानांग का पाठ सामान्यज्ञानी और भगवती का पाठ विशिष्ट ज्ञानी की अपेक्षा से है। इसी प्रकार बृहत्कल्प में जो उल्लेख है, वह श्रुतव्यवहारी की अपेक्षा से है, आगम व्यवहारी की अपेक्षा से नहीं। बृहत्कल्प स्वयं श्रुतव्यवहार है, आगम व्यवहार नहीं है। ___ यदि स्थानांग और बृहत्कल्प के निषेध से सम्पूर्ण प्रकार से नपुंसक की दीक्षा का निषेध समझा जाये तो जन्म और कृत्रिम दोनों प्रकार के नपुंसक का निषेध हो जायेगा। किन्तु ऐसा आगमकारों को इष्ट नहीं है। क्योंकि आगमों में सिद्धों के भेदों में नपुसंकलिंग सिद्ध बताया है। इसलिए यदि एकांत रूप से निषेध को ही ग्रहण करेंगे तो भगवती सूत्र के बंधी शतक का पाठ अप्रामाणिक मानना होगा। अतः दोनों पाठों को प्रामाणिक मानने के लिए उपर्युक्त रीति से समन्वय करना उचित है। नपुंसकलिंग में सिद्ध होने का वर्णन भगवती सूत्र, स्थानांग सूत्र, पन्नवणा सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र आदि सूत्रों में स्पष्ट रूप से है। अतः उनकी दीक्षा होती है, लेकिन आगम व्यवहारी के अतिरिक्त अन्य साधु उन्हें दीक्षित नहीं कर सकते हैं। आगम व्यवहारी जन्म नपुंसक और कृत नपुंसक दोनों को दीक्षा दे सकते हैं और वे नपुसंक उसी भव में सिद्ध हो सकते हैं। भगवतीसूत्र शतक 25 उ. 7 में संयत के वर्णन में छेदोपस्थापनीयचारित्र के भी नपुंसकलिंग माना है। इससे यह तो निश्चित हो जाता है कि नपुंसक भी साधु बन सकता है। छेदोपस्थापनीय चारित्र तीर्थ में ही होता है।27 इससे यह भी समझा जा सकता है कि नपुसंक को दीक्षा दी जा सकती है। 125. तओ णो कप्पंति पव्वावेत्तए, तं जहा-पंडए, वातिए, कीवे। युवाचार्य मधुकरमुनि, स्थानांग सूत्र, स्था. 3. उ. 4 पृ. 182 126. युवाचार्य मधुकरमुनि, त्रीणि छेदसूत्राणि (बृहत्कल्पसूत्र), उद्देशक 4 पृ. 200 127. भगवती सूत्र शतक 25 उ.7
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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