________________
विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
I
एकेन्द्रियादि असंज्ञीप्राणी नपुसंक वेदी ही होते हैं । लेकिन उनमें स्त्री और पुरुष नपुंसक का भेद स्पष्ट नहीं कर सकते हैं, लेकिन मनुष्यों में यह भेद स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है । अतः पुरुष नपुसंक वेद का सीधा एवं स्पष्ट अर्थ छोड़कर कृत (कृत्रिम) नपुंसक की कल्पना करना कैसे उचित है ? अतः मात्र टीका पाठ का आधार लेकर आगम पाठ की उपेक्षा करना सही नहीं है ।
[462]
कृत-नपुंसक, वास्तविक नपुंसक नहीं है - यह बात ठीक है, परन्तु सवाल यह उत्पन्न होता है कि नपुंसक सिद्ध होता ही नहीं, तो नपुंसक - सिद्ध बताया ही कैसे ? आगमकारों को दो लिंग वाले (स्त्री और पुरुष ) ही सिद्ध बताने चाहिए थे। लेकिन आगमों में स्पष्ट रूप से तीन लिंगों के सिद्ध का उल्लेख है। उक्त प्रमाण से जन्म- नपुंसक ( पुरुष नपुंसक) का मोक्ष जाना स्पष्ट सिद्ध होता है । जन्म नपुंसक भी पुरुष नपुंसक और स्त्री नपुंसक से दो प्रकार के होते हैं । अतः जन्म नपुंसक में भी पुरुष नपुंसक का ही मोक्ष समझना चाहिए। क्योंकि टीकाकारों ने तो जन्म नपुंसक मोक्ष नहीं जाता है, इतना ही उल्लेख किया है। इस सम्बन्ध में विशेष खुलासा नहीं है। लेकिन श्रुति परम्परा से स्त्री नपुंसक तो दीक्षा के ही अयोग्य होता है, इसलिए उसका मोक्ष जाना नहीं माना जाता है।
दिगम्बर परम्परा में स्त्रीलिंग सिद्ध की तरह नपुसंकलिंग सिद्ध को भी स्वीकार नहीं करती है | 128 11. स्वलिंग सिद्ध - जैन साधुओं का जो अपना लिंग है, वह 'स्वलिंग' है। स्वलिंग के दो प्रकार हैं - १. द्रव्यलिंग-रजोहरण और मुखवस्त्रिका, ये साधुओं के अपने बाहरी लिंग, 'द्रव्यलिंग' हैं । २. भावलिंग - अर्हन्त कथित सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, ये आन्तरिक 'भावलिंग' हैं। भावलिंग आये बिना तो कोई भी सिद्ध होता ही नहीं । इललिए यहाँ जो उल्लेख है वह द्रव्यलिंग की अपेक्षा है। इललिए जो जैन साधुत्व के प्रदर्शक रजोहरण-मुखवस्त्रिका रूप लिंग वेश, चिह्न के रहते सिद्ध हुए वे 'स्वलिंग सिद्ध' हैं। जैसे भरत चक्रवर्ती आदि ।
12. अन्यलिंग सिद्ध - जो ( भाव लिंग की अपेक्षा जैन लिंग से, किन्तु द्रव्यलिंग की अपेक्षा) तापस, परिव्राजक आदि वल्कल, काषाय वस्त्र, कमण्डलु, त्रिशूल आदि लिंग (वेश) में रहते हुए सिद्ध हुए, वे ‘अन्यलिंग सिद्ध' हैं अर्थात् जो अन्यतीर्थों के वेश में मुक्त होता है । वह अन्यलिंगसिद्ध कहलाता है । 129 जैसे वल्कलचीरी आदि । सम्यक्त्व - प्रतिपन्न अन्यलिंगी केवलज्ञान प्राप्त करता है और यदि वह उसी क्षण मुक्त हो जाता है, तो उसका केवलज्ञान अन्यलिंगसिद्ध केवलज्ञान कहलाता है। यदि तत्काल उसका आयुष्य पूर्ण नहीं होता है तो वह जैन साधु (स्वलिंग) वेश को स्वीकार करता ही है। 130
13. गृहस्थलिंग सिद्ध केश, अलंकार आदि से युक्त द्रव्यलिंग ( भावलिंग की अपेक्षा भाव जैन साधुत्वलिंग से, किन्तु द्रव्य- लिंग की अपेक्षा) गृहस्थ वेश में रहते हुए जो सिद्ध हुए, वे 'गृहस्थलिंग सिद्ध' हैं । 31 जैसे मरुदेवी आदि ।
14. एक सिद्ध - जो अपने सिद्ध होने के समय में अकेले सिद्ध हुए, वे 'एक सिद्ध' हैं अर्थात् जिस समय में केवली सिद्ध होता है, उस समय अन्य कोई केवली सिद्ध नहीं होता है, तो उसको एक सिद्ध कहते हैं। 32 जैसे भगवान् महावीर स्वामी ।
15. अनेक सिद्ध- जो अपने सिद्ध होने के समय में अनेक ( जघन्य दो, उत्कृष्ट एक सौ
-
128. न चैतद्वाच्यम् नास्ति पुंसो मोक्षः स्त्रीतोन्यत्वात् नपुंसकवत् । प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग 2, पृ. 269
130. आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ. 76 132. नंदीचूर्णि, पृ. 45
129. नंदीचूर्णि, पृ. 45 131. नंदीचूर्णि, पृ. 45