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[460] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन इसलिए इस सम्बन्ध में विशेष गवेषणा नहीं की गई है। लेकिन उपर्युक्त चर्चा का सारांश यही है कि श्वेताम्बर आगमों में स्त्रीलिंगसिद्ध का स्पष्ट वर्णन है। इसलिए स्त्री-मुक्ति को स्वीकार करना ही अधिक तर्क संगत प्रतीत होता है।
प्रश्न - क्या तीर्थकर भी स्त्रीलिंगसिद्ध होते हैं?
उत्तर - तीर्थंकर भी स्त्रीलिंगसिद्ध होते हैं और सिद्धप्राभृत के अनुसार स्त्री तीर्थंकर सबसे कम होते हैं।
9. पुरुषलिंग सिद्ध - जो पुरुष शरीर आकृति में सिद्ध हुए, उन्हें 'पुरुषलिंग सिद्ध' कहते हैं, जैसे गौतम आदि।
10. नपुंसक लिंग सिद्ध - जो नपुंसक शरीर आकृति के रहते हुए सिद्ध हुए, उन्हें 'नपुंसक लिंग सिद्ध' कहते हैं, जैसे गांगेय आदि। टीकाकारों के अनुसार जन्म नपुंसक चारित्र का अधिकारी नहीं होता, कृत्रिम नपुंसक ही चारित्र का अधिकारी होता है।"पुरुष होते हुए भी जो लिंग-छेद आदि के कारण नपुंसकवेदक हो जाता है, ऐसे कृत्रिम नपुंसक को यहाँ पुरुष-नपुंसक कहा है, स्वरूपतः अर्थात् जो जन्म से नपुंसकवेदी है, उसे यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है।"123 अभयदेवसूरि ने भी पुरुष नपुंसक का अर्थ कृत्रिम नपुंसक किया है। 24 नंदीचूर्णि और नंदी की दोनों वृत्तियों में नपुसंक की व्याख्या उपलब्ध नहीं होती है।
टीकाकार ने पुरुष-नपुंसक का अर्थ कृतनपुंसक किया है जो आगमानुसार नहीं है, क्योंकि भगवती सूत्र के 26 वें शतक (बंधीशतक) से जन्म नपुंसक का उसी भव में मोक्ष जाना सिद्ध है। 26वें शतक में 47 बोलों की पृच्छा है। समुच्चय मनुष्य में 47 बोल पाये जाते हैं। 26वें शतक के दूसरे उद्देशक में अनन्तरोपपन्नक मनुष्य में समुच्चय के 47 बोलों में से 11 बोलों (अलेश्यी, मिश्रदृष्टि, मन:पर्यवज्ञान, केवलज्ञान, विभंगज्ञान, नो संज्ञोपयुक्त, अवेदी, अकषायी, मनोयोगी, वचनयोगी
और अयोगी) को छोड़ कर शेष 36 बोल बताये हैं। इन 36 बोलों में नपुंसक-वेद भी शामिल है। 36 बोलों में से कृष्ण-पक्षी अनन्तरोपपन्नक मनुष्य में एक तीसरा भंग और शेष 35 बोल वाले अनन्तरोपपन्नक मनुष्य में आयुकर्म की अपेक्षा से दो भंग पाये जाते हैं - तीसरा और चौथा भंग। तीसरा भंग- कितनेक मनुष्यों ने आयुकर्म बांधा था, अब नहीं बांधते हैं, आगे बांधेगे। (अत्थेगइए बंधी, न बंधति, बंधिस्सइ) चौथा भंग - कितने मनुष्यों ने आयुकर्म बांधा था, अब नहीं बांधते हैं, आगे नहीं बांधेगे। (अत्थेगइए बंधी, न बंधति, न बंधिस्सति) यहाँ पर अनन्तरोपपन्नक का अर्थ है उत्पत्ति के प्रथम समय का जीव। अतः अनन्तरोपपन्नक मनुष्य का अर्थ हुआ कि जिसको उत्पन्न हुए पहला समय ही हुआ है वह मनुष्य।।
__ आयुकर्म की अपेक्षा उपर्युक्त चौथा भंग चरम-शरीरी मनुष्य (उसी भव में मोक्ष जाने वाला) में ही घटित हो सकता है। क्योंकि चौथे भंग के अनुसार जीव ने पहले आयुष्य बांधा था, वर्तमान में नहीं बांध रहा है, और भविष्य में भी आयुष्य कर्म नहीं बांधेगा। जिस जीव के वर्तमान
और भविष्य में आयुष्य नहीं बंधता है तो वह जीव उसी भव में मोक्ष जायेगा, क्योंकि बिना आयुकर्म बांधे जीव परभव में नहीं जाता है। 122. हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 46 123. युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवतीसूत्र श. 25 उ. 6 सूत्र नं. 11-16, पृ. 391-392 124. पुरुषः सन्योनपुंसकवेदको वर्द्धितकत्वादिभावेन भवत्यसौ पुरुषनपुंसकवेदक: न स्वरूपेणनपुसंकवेदक इतियावत् । भगवतीसूत्र
वृत्ति, अहमदाबाद, आगम श्रुत प्रकाशन, पृ. 410