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सप्तम अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान
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प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम से सिद्ध नहीं होता है। सम्यग् ज्ञान- दर्शन - चारित्र त्रिरत्न की आराधना करने पर ही जीव सिद्ध होता है, इनकी आराधना किए बिना कोई भी जीव सिद्ध हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं । जिस प्रकार भूख को शांत करने के लिए भोज्य पदार्थ आवश्यक है न कि पात्र। पात्र सोने का हो, पीतल का हो इत्यादि किसी भी धातु का हो, लेकिन उसमें भोज्य पदार्थ यदि क्षुधा को शान्त करने में उपयोगी है, तो उसका महत्त्व है और यदि वह योग्य नहीं है तो उस पात्र का कोई महत्त्व नहीं है। इसी प्रकार मुक्ति प्राप्ति में गुणों की आवश्यकता है, लिंग की नहीं । मुमुक्षु आत्मा मोहनीय कर्म का क्षय करके अवेदीपने को प्राप्त होता है । अवेदी जीव के लिए 'पुल्लिंग' शब्द का ही प्रयोग किया है । ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र में मल्लिभगवती जब गृहस्थ जीवन में थी, तब उन्हें 'मल्ली विदेहवरकन्या' से आगमकारों ने सम्बोधित किया है। लेकिन उन्हें केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद उनके लिए 'मल्लि णं अरहा जिणे केवली' शब्दों का प्रयोग आगमकारों ने किया है। इससे स्पष्ट होता है कि अवेदी के लिए मात्र पुल्लिंग की क्रिया का ही प्रयोग किया जाता है। अतः स्त्रियाँ भी सम्यग् ज्ञान-दर्शन- चारित्र, इस रत्नत्रयी की आराधना कर सकती हैं एवं उनका निर्वाण संभव है।
२. अभवी सातवीं नरक में जा सकता है, लेकिन मोक्ष में नहीं, इस अन्तर का कारण उसके पारिणामिक भाव हैं। इसी प्रकार भुजपरिसर्प दूसरी नारकी, खेचर तीसरी नारकी, चतुष्पद चौथी नारकी और उरपरिसर्प पांचवी नारकी तक जा सकते हैं, उससे आगे जाने योग्य मनोवीर्य उनमें नही होता । भुजपरिसर्प आदि ऊँचे लोक में आठवें ( सहस्रार) देवलोक तक जा सकते हैं। इससे स्पष्ट है, कि तिर्यंच के इन भेदों में अधोगति के सम्बन्ध में मनोवीर्य की भिन्नता है, उनके ऊर्ध्वगति सम्बन्धी अन्तर नहीं है। इसी प्रकार स्त्री और पुरुष के अधोगति सम्बन्धी भिन्नता है, लेकिन निर्वाण के सम्बन्ध में नहीं है। स्त्री सातवीं नरक में नहीं जा सकती है, पुरुष जा सकते हैं । किन्तु स्त्री और पुरुष ये दोनों मुक्त हो सकते हैं।” अन्तकृद्दशा सूत्र के पांचवें, सातवें और आठवें वर्ग में साध्वियों ने उत्कृष्ट तपाराधना आदि करके मोक्ष को प्राप्त किया है। उनकी साधना कितनी उत्कृष्ट थी, उनका मनोबल पुरुष से कम नहीं था । इसलिए लिंग मोक्ष में बाधक नहीं है।
३. वस्त्र धारण करना परिग्रह नहीं, लेकिन 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो 118 के अनुसार ममत्व ही परिग्रह है। इसका समर्थन 'मूर्च्छा परिग्रहः 19 सूत्र भी करता है। यदि मन में ममत्व नहीं है, तो बाह्य वस्त्रादि परिग्रह रूप नहीं हो सकते हैं। यदि किसी भी वस्तु के प्रति मूर्च्छा भाव है तो वह परिग्रह रूप है। इसी अपेक्षा से भरत चक्रवर्ती अपरिग्रही बताये गये हैं । 120 भगवद् गीता में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है कि कर्मफल की आसक्ति नहीं रखकर कृतकर्म भी अकर्म है और कर्मफल का त्याग ही सच्चा त्याग है । 121
४. प्रमाद का सेवन नहीं करने से वस्त्र में जीव नहीं होते हैं।
५. वंद्यत्व - अवंद्यत्व के साथ मोक्ष का सम्बन्ध नहीं है ।
६. माया - मोह का बाहुल्य पुरुषों में भी हो सकता है।
७. तप और शील सत्त्व हैं, जो स्त्रियों में हो सकते हैं।
उपर्युक्त चर्चा के सम्बन्ध में दोनों परम्परा के आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में विस्तार से खण्डन- मण्डन किया है। लेकिन विशेषावश्यकभाष्य में इस सम्बन्ध में विशेष उल्लेख नहीं है।
117. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 133 119. तत्वार्थसूत्र अ. 7.12
121. भगवत् गीता. 4.20, 18.2
118. दशवैकालिक सूत्र अ. 6 गा. 12 120. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 131