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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
अयोगी भवस्थ केवलज्ञान के भेद ।
अयोगी भवस्थ केवलज्ञान के दो भेद हैं - १. प्रथम समय की अयोगी भवस्थ अवस्था का केवलज्ञान - जिन्हें अयोगी अवस्था प्राप्त हुए पहला समय ही है, ऐसे केवलियों का केवलज्ञान अथवा जिस केवलज्ञानी को चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश किये हुए पहला समय ही हुआ है उसके केवलज्ञान को प्रथम समय अयोगी भवस्थ केवलज्ञान कहते हैं तथा २. अप्रथम समय की अयोगी भवस्थ अवस्था का केवलज्ञान - जिन्हें अयोगी अवस्था प्राप्त किये पहला समय बीत गया है। ऐसे मनुष्य भव में रहे हुए संसारस्थ केवलियों का केवलज्ञान अथवा जिसे चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश किये अनेक समय हो गये हैं, उनके केवलज्ञान को अप्रथम समय अयोगी भवस्थ केवलज्ञान कहते हैं।
अथवा १. चरम समय की अयोगी भवस्थ अवस्था का केवलज्ञान - जिनकी अयोगी अवस्था का वर्तमान समय अन्तिम समय है, ऐसे मनुष्य भव में रहे हुए संसारस्थ केवलियों का केवलज्ञान अथवा जिसे सिद्ध होने में एक समय ही शेष रहा है, उसके ज्ञान को चरम समय अयोगी भवस्थ केवलज्ञान कहते हैं तथा २. अचरम समय की सयोगी भवस्थ अवस्था का केवलज्ञान-जिनकी अयोगी अवस्था का वर्तमान समय में अन्तिम समय नहीं आया है, ऐसे मनुष्य भव में रहे हुए संसारस्थ केवलियों का केवलज्ञान अथवा जिसके सिद्ध होने से एक से अधिक समय शेष है, ऐसे चौदहवें गुणस्थान के स्वामी के केवलज्ञान को अचरम समय अयोगी भवस्थ केवलज्ञान कहते हैं।
दिगम्बर परम्परा में सयोगी व अयोगी केवली - जिनके केवलज्ञान पाया जाता है, उन्हें केवली कहते हैं। जिनमें योग के साथ केवलज्ञान रहता है, उन्हें सयोगी केवली कहते हैं। जिसके योग विद्यमान नहीं है उसे अयोगी कहते हैं। जिनमें योगरहित अवस्था में केवलज्ञान होता है, उन्हें अयोगी केवली कहते हैं। ऐसा ही वर्णन पंचसंग्रह, तत्त्वार्थराजवार्तिक और गोम्मटसार में भी है। दिगम्बर परम्परा में श्वेताम्बर परम्परा के समान सयोगी और अयोगी केवली के केवलज्ञान के भेद प्राप्त नहीं होते हैं।
सयोगी व अयोगी केवली में अंतर - जैसे कोई मनुष्य चोरी नहीं करता है, परन्तु चोर का संसर्ग करता है तो उसको चोर के संसर्ग का दोष लगता है, उसी प्रकार सयोगी केवली के चारित्र का नाश करने वाले चारित्रमोह कर्म के उदय का अभाव है, तो भी निष्क्रिय (क्रियारहित) शुद्ध अयोगी आत्मा के आचरण से विलक्षण जो तीन योगों का व्यापार है, वह चारित्र में दूषण उत्पन्न करता है। तीनों योगों से रहित जो अयोगी जिन हैं, उनके अंत समय को छोड़कर चार अघाती कर्मों का तीव्र उदय चारित्र में दूषण उत्पन्न करता है और अंतिम समय में उन अघाती कर्मों का मंद उदय होने पर चारित्र में दोष का अभाव हो जाने से अयोगी जिन मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।" 2. सिद्ध केवलज्ञान
सर्वकर्ममुक्त सिद्धों का ज्ञान सिद्ध केवलज्ञान है। अर्थात् जो अष्ट कर्म क्षय कर मोक्ष सिद्धि पा चुके, उनका केवलज्ञान, सिद्ध केवलज्ञान है। ऐसा वर्णन आवश्यक चूर्णि में भी है।
74. अजोगिभवत्थकेवलणाणं दुविहं पण्णत्तं तं जहा-पढमसमय अजोगिभवत्थकेवलणाणं च अपढमसमयअजोगिभवत्थकेवल-णाणं
च अहवा चरमसमय अजोगिभवत्थकेवलणाणं च अचरमसमयअजोगिभवत्थ-केवलणाणं च। - पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 88 75. षट्खण्डागम, पु. 1, 1.1.22, पृ. 192 76. पंचसंग्रह, गाथा 27-30, तत्त्वार्थराजवार्तिक, 9.1.24, पृ. 318, गोम्मटसार जीवकांड, गाथा 63-65 77. बृहत् द्रव्यसंग्रह, अधिकार 1, गाथा 13 टीका पृ. 29 78. सव्वकम्मविप्पमुक्को सिद्धो, तस्स तं णाणं तं सिद्धकेवलनाणं। नंदीचूर्णि पृ. 43 79. आवश्यकचूर्णि 1 पृ. 74