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सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान
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1. सयोगी भवस्थ केवलज्ञान
चार घाति-कर्म रहित संसारी केवलियों का केवलज्ञान जिसमें मन, वचन, काय, इन तीन योगों का व्यापार रहता है, वह सयोगी भवस्थ केवलज्ञान कहलाता है। केवलज्ञान की प्राप्ति से लेकर जब तक शैलेषी अवस्था प्राप्त नहीं होती, तब तक वह केवलज्ञान सयोगी भवस्थ केवलज्ञान कहलाता है। योगों का व्यापार केवली की आयुष्य का अन्तर्मुहूर्त बाकी रहता है तब तक चलता है। सयोगी भवस्थ केवलज्ञान के भेद
सयोगी भवस्थ केवलज्ञान के काल की अपेक्षा दो भेद होते हैं - १. प्रथम समय की सयोगी भवस्थ-अवस्था का केवलज्ञान और २. अप्रथम समय की सयोगी भवस्थ-अवस्था का केवलज्ञान। अथवा अन्य प्रकार से कहें तो १. चरम समय की सयोगी भवस्थ-अवस्था का केवलज्ञान तथा २. अचरम समय की सयोगी भवस्थ-अवस्था का केवलज्ञान।2
१. प्रथम समय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान- चार घाति कर्म क्षय करके पहले समय के संसारस्थ केवलियों का केवलज्ञान। केवलज्ञान तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश के पहले समय में ही उत्पन्न होता है, इसलिए इसे प्रथम समय का सयोगी भवस्थ केवलज्ञान कहते हैं और २. अप्रथम समय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान - जिन्हें चार घाति-कर्म क्षय किये पहला समय बीत गया है, ऐसे दूसरे समय से लेकर चरम समयवर्ती सभी सयोगी केवलियों का केवलज्ञान अथवा जिसे तेरहवें गुणस्थान में रहते हुए एक से अधिक समय हो जाता है, उसे अप्रथम समय का सयोगी भवस्थ केवलज्ञान कहते हैं
अथवा - १. चरम समय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान - जिनकी सयोगी अवस्था का वर्तमान समय अन्तिम समय है, ऐसे मनुष्य भव में रहे हुए संसारी केवलियों का केवलज्ञान अथवा जो तेरहवें गुणस्थान के अंतिम समय पर पहुँच गया है, उसे चरम समय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान कहते हैं।
और २. अचरम समय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान - जिनकी सयोगी अवस्था का वर्तमान समय में अन्तिम समय नहीं आया है ऐसे मनुष्य भव में रहे हुए संसारी केवलियों का केवलज्ञान अथवा जो तेरहवें गुणस्थान के चरम समय में नहीं पहुँचा उसके ज्ञान को अचरम समय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान कहते हैं। चार घाति-कर्मों की जिस समय सर्वांश निर्जरा हो रही होती है, उसके अनंतर दूसरे समय में मनुष्य को केवलज्ञान उत्पन्न होता है। चार घाति-कर्मों के क्षय का समय और केवलज्ञान की उत्पत्ति का समय, दोनों का समय एक ही है। 2. अयोगी भवस्थ केवलज्ञान
जिन्होंने मन, वचन और काय, इन तीनों योगों का निरोध कर शैलेशी अवस्था प्राप्त कर ली है, ऐसे घाति-कर्म रहित संसारी मनुष्य (आसन्न मुक्ति वाले) केवलियों का केवलज्ञान। अथवा केवली जब काययोगादि तीन योगों का त्याग करते हैं तब उसको अयोगी भवस्थ कहते हैं। इसमें वे केवली शैलेशी अवस्था को प्राप्त करते हैं। सयोगी भवस्थ के समान अयोगी भवस्थ के भी दो प्रकार हैं।
69. नंदीचूर्णि पृ. 34, हारिभद्रीय पृ. 35, मलयगिरि पृ. 112 70. आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ. 74 71. सर्वार्थसिद्धि, अध्ययन 9 सूत्र 44, पृ. 360 72. सजोगिभवत्थ-केवलणाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-पढमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणं च अपढमसमयसजोगिभवत्थकेवल-णाणं
च, अहवा चरमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणं च अचरमसमयसजोगि-भवत्थ-केवलणाणं च। - पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 87 73. नंदीचूर्णि 34, हरिभद्रीय 35, योगा अस्स विद्यन्ते इति योगी न योगी अयोगी अयोगी चासौ भवस्थश्च अयोगिभवस्थः,
शैलेश्यवस्थामुपागत इत्यर्थः, तस्य केवलज्ञानमयोगिभवस्थकेवलज्ञानं। - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 113