SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 480
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान [455] सिद्ध का स्वरूप जो जिस गुण से परिनिष्ठ (परिपूर्ण) है तथा पुनः परिनिष्ठ होना नहीं पड़ता, वह उस गुण में सिद्ध कहलाता है। विशेषावश्यकभाष्य में नामसिद्ध, स्थापनासिद्ध, द्रव्यसिद्ध, कर्मक्षयसिद्ध इत्यादि सिद्ध के चौदह प्रकार बताये हैं। उसमें से यहाँ पर कर्मक्षय सिद्ध (समस्त कर्मों का क्षय करने वाला अर्थात् समस्त कर्म क्षीण कर सिद्ध होने वाला) प्रासंगिक है, क्योंकि उसके सिवाय शेष सिद्धों के केवलज्ञान नहीं होता है। सित का अर्थ है - दग्ध करना। जो आठ प्रकार की बद्ध कर्मरजों को ध्यानाग्नि से दग्ध करता है, वह सिद्ध है।' मलयगिरि ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है। जो ज्ञानावरणादि कर्मों से सर्वथा मुक्त हैं, सुनिर्वृत्त हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, ज्ञान, दर्शन, अव्याबाध सुख, वीर्य, अवगाहन, सूक्ष्मत्व और अगुरुलघु इन आठ गुणों से युक्त हैं, कृतकृत्य हैं और लोक के अग्रभाग में निवास करते हैं, उन्हें सिद्ध कहते है। सिद्ध केवलज्ञान के प्रकार सिद्ध केवलज्ञान काल की अपेक्षा से दो प्रकार का है - १. अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान और २. परम्पर सिद्ध केवलज्ञान । १. अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान जिनदासगणि के अनुसार 1. सिद्ध अवस्था के प्रथम समय का ज्ञान अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान है। 2. जिस समय में एक केवली सिद्ध होता है, उसके अनन्तर दूसरे समय में अन्य केवली सिद्ध होता है, उनमें प्रथम केवली का ज्ञान अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान है। हरिभद्र और मलयगिरि कहते हैं कि जिन्हें सिद्ध हुए एक समय का भी अन्तर (एक समय भी नहीं बीता) नहीं हुआ अर्थात् जिनके सिद्धत्व का पहला समय है, अथवा जो वर्तमान समय में सिद्ध हो रहे हैं, उनका केवलज्ञान और शैलेशी अवस्था के अंतिम समय को पूर्णकर सिद्धावस्था को प्राप्त जीव का केवलज्ञान अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान हैं।" अनन्तरसिद्ध के भेद अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान के पन्द्रह भेद हैं - 1. तीर्थसिद्ध 2. अतीर्थसिद्ध 3. तीर्थंकर सिद्ध 4. अतीर्थंकर सिद्ध 5. स्वयंबुद्ध सिद्ध 6. प्रत्येकबुद्ध सिद्ध 7. बुद्ध-बोधित सिद्ध 8. स्त्रीलिंग सिद्ध 9. पुरुषलिंग सिद्ध 10. नपुंसकलिंग सिद्ध 11. स्वलिंग सिद्ध 12. अन्यलिंग सिद्ध 13. गृहस्थलिंग सिद्ध 14. एक सिद्ध तथा 15. अनेक सिद्ध 88 सिद्ध के पंद्रह भेद नंदीसूत्रकार के स्वोपज्ञ हैं या इनका कोई प्राचीन आधार रहा होगा? प्रज्ञापनासूत्र में भी इनका उल्लेख है। प्रज्ञापनासूत्र, नंदीसूत्र की अपेक्षा 80. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3027, 3028 81. आवश्यकनियुक्ति गाथा 953 82. 'षिधू संराद्धौ' सिध्यति स्म सिद्धः यो येन गुणेन परिनिष्ठतो न पुन: साधनीयः स सिद्ध उच्यते, यथा सिद्ध ओदनः, स च कर्मसिद्धादिभेदादनेकविधः, अथवा सितं-बद्धं ध्यातं-भस्मीकृतमृष्टप्रकारं कर्म येन स सिद्ध पृषोदरादय इति रूपसिद्धिः, सकलकर्मविनिर्मक्तो मुक्तावस्थामुपागत इत्यर्थः। - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 112 83. षट्खण्डागम, पु. 1, 1.1.23, गाथा 127, पृ. 200 84. सिद्धकेवलणाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-अणंतरसिद्धकेवलणाणं च परंपरसिद्धकेवलणाणं च। -पारसमुनि, नंदीसूत्र पृ. 89 85. नंदीचूर्णि पृ. 44 86. आवश्यकचूर्णि 1 पृ. 75 87. हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 44, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 113 88. अणंतरसिद्धकेवलणाणं पण्णरसविहं पण्णत्तं तं जहा - १. तित्थसिद्धा, ....१५. अणेगसिद्धा। - पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 90 89. युवाचार्य मधुकरमुनि, प्रज्ञापनासूत्र पद 1, पृ. 32
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy