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________________ सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान [449] 1. परिपूर्ण - केवलज्ञान सभी द्रव्य और उसकी त्रिकालवर्ती पर्यायों को जानता है, इसलिए यह ज्ञान परिपूर्ण कहलाता है। सभी जानने योग्य पदार्थों को जानने वाला होने से परिपूर्ण है। 2. समग्र (सम्पूर्ण) - जो ज्ञान संपूर्ण होता है वह केवलज्ञान है। यह ज्ञान संपूर्ण पदार्थों (रूपी-अरूपी) की समस्त त्रिकालवर्ती पर्यायों को समग्र रूप से ग्रहण करता है। चूंकि केवलज्ञान अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, विरति एवं क्षायिक सम्यक्त्व आदि अनंत गुणों से पूर्ण है, इसलिए इसे संपूर्ण कहा जाता है। 3. सकल - केवलज्ञान अखंड होने से सकल है, समस्त बाह्य अर्थ में प्रवृत्ति नहीं होने से ज्ञान में जो खंडपना आता है, ऐसा खंडपना केवलज्ञान में संभव नहीं है क्योंकि केवलज्ञान के विषय त्रिकालगोचर अशेष बाह्य पदार्थ हैं अथवा, द्रव्य, गुण और पर्यायों के भेद का ज्ञान अन्यथा नहीं बन सकने के कारण जिनका अस्तित्व निश्चित है, ऐसे ज्ञान के अवयवों का नाम कला है। इन कलाओं के साथ वह अवस्थित रहता है, इसलिए सकल है। 4. असाधारण - केवलज्ञान जैसा और कोई दूसरा ज्ञान नहीं होता है। मति आदि ज्ञान की अपेक्षा यह विशिष्ट है, इसलिए असाधारण है। 5. निरपेक्ष - केवल ज्ञान मत्यादिक ज्ञान की अपेक्षा निरपेक्ष है। केवलज्ञान होने पर मत्यादिक ज्ञान रहते नहीं हैं। यह ज्ञान तो अपने आवरण का पूर्ण क्षय होने से होता है। इन्द्रियादि की अपेक्षा से रहित होता है, निरपेक्ष है। जो ज्ञान किसी की सहायता के बिना सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों का विषय करता है अथवा जो ज्ञान मनुष्य भव में उत्पन्न होता है, अन्य किसी भव में उत्पन्न नहीं होता है, उस की अवस्थिति देह और विदेह दोनों अवस्थाओं में पाई जाती है। 6. विशुद्ध - चार ज्ञान क्षायोपशमिक होने से सर्वथा विशुद्ध नहीं होते हैं, जबकि केवलज्ञान सम्पूर्ण ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कर्म के विगत (क्षय) होने पर ही होता है, अतः इसे विशुद्ध कहा गया है। 7. सर्वभावप्रज्ञापक - यह समस्त जीवादिक पदार्थों का प्ररूपक है, इसलिए यह सर्वभाव प्रज्ञापक है। शंका होती है कि केवलज्ञान को तो मूक बतलाया है, फिर यह पदार्थों का प्ररूपक कैसे हो सकता है? समाधान में कहा गया है कि यह बात उपचार से सिद्ध होती है, अत: उसे प्ररूपक कहा है, क्योंकि समस्त जीवादिक भावों का सर्वरूप से यथार्थदर्शी ज्ञान केवलज्ञान है और शब्द केवलज्ञान द्वारा देखे हुए पदार्थों की ही प्ररूपणा करता है, इसलिए उपचार से ऐसा मान लिया जाता है कि केवलज्ञान ही उनका प्ररूपक है। 8. संपूर्ण लोकालोक विषयक - धर्मादिक द्रव्यों की जहां वृत्ति है, उसका नाम लोक है और इससे विपरीत अलोक है। इसमें आकाश के सिवाय और कोई द्रव्य नहीं है। यह अनंत और अस्तिकाय रूप है। लोक और अलोक में जो कुछ ज्ञेय पदार्थ होता है, उसका सर्वरूप से प्रकाशक होने से यह संपूर्णलोकालोक विषयक कहा जाता है।" 34. केवलं परिपूर्ण समस्तज्ञेयावगमात्। - मलधारी हेमचन्द्र, पृ. 337 35. षट्खण्डागम पु. 13 सूत्र 5.5.81 पृ. 345 36. षट्खण्डागम पु. 13 सूत्र 5.5.81 पृ. 345 37. घासीलालजी महाराज, नंदीसत्र, पृ. 166 38. मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वादसहायं वा केवलं। - मलधारी हेमचन्द्र, पृ. 337 39. घासीलालजी महाराज, नंदीसूत्र, पृ. 166 40. घासीलालजी महाराज, नंदीसूत्र, पृ. 166 41. घासीलालजी महाराज, नंदीसूत्र, पृ. 167
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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