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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
5. पूज्यपाद (पंचम - षष्ठ शती) के अनुसार
के द्वारा मोक्ष मार्ग का सेवन करते हैं वह केवलज्ञान कहलाता है । "
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अर्थीजन जिसके लिए बाह्य और आभ्यंतर तप
6. अकलंक (अष्टम शती) के कथनानुसार जिसके लिए बाह्य और आभ्यंतर विविध प्रकार के तप किये जाते हैं, वह लक्ष्य भूत केवलज्ञान है। यहां केवल शब्द असहाय अर्थ में है जैसे केवल अन्न खाता है अर्थात् शाक आदि रहित अन्न खाता है, उसी तरह केवल अर्थात् क्षायोपशमिक आदि ज्ञानों की सहायता से रहित असहाय केवलज्ञान है। यह रूढ़ शब्द है | 7
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7. आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव के अनुसार जो ज्ञान समस्त द्रव्यों और उनकी सभी पर्यायों को जानने वाला है, समस्त जगत् को देखने का नेत्र है तथा अनंत है, एक और अतीन्द्रिय है अर्थात् मतिश्रुत ज्ञान के समान इन्द्रियजनित नहीं है, केवल आत्मा से ही जानता है, वह केवलज्ञान है । 28
8. वीरसेनाचार्य (नवम शती) धवलाटीका में कहते है कि 1. जो ज्ञान असहाय अर्थात् इन्द्रिय और आलोक की अपेक्षा रहित है, त्रिकालगोचर अनंत पर्यायों से समवायसंबंध को प्राप्त अनंत वस्तुओं को जानने वाला है, सर्वव्यापक (असंकुटित ) है और असपत्न ( प्रतिपक्षी रहित ) है, उसे केवलज्ञान कहते हैं । 29
2. जो मात्र आत्मा और अर्थ के संनिधान से उत्पन्न होता है, जो त्रिकालगोचर समस्त द्रव्य और पर्यायों को विषय करता है, जो करण, क्रम और व्यवधान से रहित है, सकल प्रमेयों के द्वारा जिसकी मर्यादा नहीं पाई जा सकती, जो प्रत्यक्ष एवं विनाश रहित है, वह केवलज्ञान है 30
9. गोम्मटसार में नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ( एकादश शती) ने उल्लेख किया है कि केवलज्ञान, संपूर्ण, समग्र, केवल, प्रतिपक्ष रहित, सर्वपदार्थ गत और लोकालोक में अंधकार रहित है अर्थात् केवल ज्ञान समस्त पदार्थों को विषय करने वाला है। पंचसंग्रह में भी यही परिभाषा मिलती है । 2 10. अभयचन्द्रसिद्धान्त चक्रवर्ती की कर्मप्रकृति के अनुसार इन्द्रिय, प्रकाश और मन की सहायता के बिना त्रिकाल गोचर लोक तथा अलोक के समस्त पदार्थों का एक साथ अवभास (ज्ञान) केवलज्ञान है। 3
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केवलज्ञान के उपर्युक्त विभिन्न लक्षणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि सभी ग्रंथकारों, सूत्रकारों ने आवरण क्षय से होने वाले केवलज्ञान को एक शुद्ध, असाधारण, शाश्वत, अप्रतिपाती, अनंत, विशुद्ध एवं समग्र इत्यादि रूप में स्वीकार किया है। केवलज्ञान को परिभाषित करने में प्रयुक्त विशेषणों का अर्थ
दोनों परम्पराओं के आचार्यों ने केवलज्ञान को परिभाषित करते हुए केवलज्ञान के लिए विभिन्न विशेषणों का प्रयोग किया है, यथा परिपूर्ण, समग्र, असाधारण, निरपेक्ष, विशुद्ध, सर्वभाव प्रज्ञापक, संपूर्ण लोकालोक प्रकाशक, अनंत पर्याय इत्यादि, जिनका अर्थ निम्न प्रकार से हैं
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26. सर्वार्थसिद्धि 1.9, पृ. 68 27. तत्त्वार्थराजतार्तिक, 1.9.6-7 पृ. 32 28. अशेषद्रव्यपर्यायविषयं विश्वलोचनम् । अनंतमेकमत्यक्षं केवलं कीर्तितं जिनैः । ज्ञानार्णव, प्र. 7 गाथा 8, पृ. 163
29. षट्खण्डागम (धवला), पु. 6, सूत्र 1.9.1.14, पृ. 29
30. षट्खण्डागम (धवला) पु. 13 सूत्र 5.5.21 पृ. 213
31. संपुण्ण तु समग्गं केवलमसवत्तं सव्वभावगयं । लोयालोयवितिमिरं केवलणाणं मणुदेव्वं ।
32. पंचसंग्रह, गाथा 126, पृ. 27
-गोम्मटसार (जीवकांड), भाग 2, गाथा 460 33. कर्मप्रकृति, पृ. 6