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सप्तम अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान केवलज्ञान सभी ज्ञानों का चरमोत्कर्ष है। केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद ही आत्मा सम्पूर्ण रूप से अनावृत्त होती है, एवं स्वभाव में रमण कर शुद्ध चैतन्य की अनुभूति करते हुए सिद्ध, बुद्ध, निरंजन, निराकार एवं निर्विकार अवस्था को प्राप्त करती है अर्थात् स्व स्वरूप में स्थित होती है।
प्राचीन आगमिक काल में सर्वोत्कृष्ट ज्ञान के लिए 'केवलणाणे' (केवलज्ञान)' 'उप्पन्ननाणदंसणधरा' (उत्पन्नज्ञान-दर्शनधारी (केवलज्ञान-केवलदर्शी)2 'सव्वदंसी' (सर्वदर्शी) 'अभिभूयणाणी' (अभिभूतज्ञानी-केवलज्ञानी)3 'अणंतचक्खू' (अनंतचक्षु) 'बुद्धा' (बुद्धा)5 'अणंतणाणदंसी' (अनन्तज्ञानीअनन्तदर्शी) 'जगसव्वदंसिणा' (जगत्सर्वदर्शी) आदि शब्द प्राप्त होते हैं।
बौद्ध परम्परा में गौतम के लिए बुद्ध शब्द का प्रयोग किया गया है। 'केवल' शब्द एक प्रकार के शुद्ध के ज्ञान के अर्थ का, तो दूसरी ओर एकल (अकेला) अर्थ का वाचक है।
इस प्रकार प्राचीन काल में सर्वोच्च ज्ञान के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग हुआ, उन्हीं शब्दों में से केवल' शब्द धीरे-धीर सर्वोच्चतम ज्ञान के लिए स्थिर हो गया। उस काल में 'केवल' शब्द मात्र केवलज्ञानी के लिए ही प्रयोग नहीं होता था, बल्कि अवधिज्ञानी केवली, मन:पर्यवज्ञान केवली
और केवलज्ञान केवली के लिए केवल शब्द का उल्लेख आगमों में मिलता है। अथवा यह भी संभव हो सकता है कि कालक्रम से अवधि और मन:पर्यव शब्द तो उस ज्ञान के लिए स्थिर हो गये और केवली शब्द केवलज्ञानी के लिए स्थिर हो गया। केवलज्ञान को अन्त में कहने का कारण
केवलज्ञान से पूर्व में मति, श्रुत, अवधि एवं मनःपर्यवज्ञान इन चार ज्ञानों का उल्लेख किया जाता है। लेकिन प्रश्न उठता है कि केवलज्ञान तो सर्वोत्कृष्ट ज्ञान है, इसे सबसे पहले कहना चाहिए था। इसके उत्तर में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कहते हैं कि मन:पर्यवज्ञान के बाद और पहले कहे अनुसार उद्देश, शुद्धि और लाभ बढने से सभी आवरणों का क्षय होने से सर्वोत्कृष्ट शुद्धि होती है, केवलज्ञान उत्पन्न होता है। इसलिए सभी से श्रेष्ठ केवलज्ञान है। प्रायः जीव को सभी ज्ञानों का लाभ होने के बाद ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, इसलिए सभी के अन्त में केवलज्ञान का निर्देश किया है। केवलज्ञानी सभी पदार्थों की सभी पर्यायों को निरंतर जानता है। सभी आवरणों से रहित केवलज्ञान प्रकाश रूप माना गया है। 1. भगवती सूत्र 8.2.2, उत्तराध्ययन सूत्र 28.4, 33.4, स्थानांग सूत्र 5.3.12 2. भगवतीसूत्र 1.4.5. स्थानांगसूत्र 1.3
3. सूत्रकृतांगसूत्र 1.6.5 4. सूत्रकृतांगसूत्र 1.6.25
5. सूत्रकृतांगसूत्र 1.8.23 6. सूत्रकृतांगसूत्र 1.9.24
7. सूत्रकृतांगसूत्र 1.2.2.31 8. तओ केवली पण्णत्ता, तं जहा-ओहिणाणकेवली, मणपज्जवणाणकेवली, केवलीणाणकेवली।
- युवाचार्य मधुकरमुनि, स्थानांग सूत्र स्था. 3 उद्दे. 4, पृ. 192 9. विशेषावश्यकभाष्यगाथा 824-827