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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
में आते-जाते रहते हैं। छठे गुणस्थान में आने पर क्या उनके मनः पर्यवज्ञान पर प्रमाद अवस्था का कोई असर होता है ? क्योंकि मनः पर्यवज्ञान अप्रमादी को ही होता है। लेकिन होने के बाद प्रमत्त और अप्रमत्त दोनों अवस्थाओं में रह सकता है ।
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उपर्युक्त वर्णन का सारांश यह है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मनः पर्यवज्ञान का विस्तृत वर्णन किया गया है। उसी वर्णन के आधार पर दोनों परम्पराओं में मनः पर्यवज्ञान में कुछ अन्तर प्रतीत हुआ है जो निम्न प्रकार से है ।
1. श्वेताम्बर परम्परा में मनः पर्यवज्ञानी मन की पर्यायों को जानता है और उन पर्यायों के आधार पर अनुमान से उन बाह्य पदार्थों को जानता है। जबकि दिगम्बर परम्परा में मनः पर्यवज्ञानी मन में चिन्तित अर्थ को भी साक्षात् जानता है।
2. श्वेताम्बर परम्परा में ऋजुमति और विपुलमति के प्रभेदों का उल्लेख नहीं मिलता है । जबकि दिगम्बर परम्परा में ऋजुमति के तीन और विपुलमति के छह भेदों का उल्लेख मिलता है।
3. श्वेताम्बर परम्परा में जघन्य मनः पर्यायज्ञानी द्रव्य की अपेक्षा संज्ञी जीव के मनरूप में परिणत मनोवर्गणा के अनन्त प्रदेशी अनन्त स्कन्धों को जानते हैं । उत्कृष्ट मनःपर्यायज्ञानी मनोवर्गणा के अनंत प्रदेशी अनन्त स्कन्ध ही जानते हैं, लेकिन यह स्कन्ध जघन्य मनः पर्यायज्ञान से अनन्तगुणा अधिक होते हैं। जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार द्रव्य की अपेक्षा कार्मणवर्गणा का अनन्तवां भाग जो सर्वावधि का विषय है उसके भी अनन्त भाग करने पर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है, वह मनः पर्यव का विषय है, इसके भी अनन्त भाग करने पर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है, वह मन:पर्यव का उत्कृष्ट विषय है, जो कि जघन्य से भी सूक्ष्म है।
4. श्वेताम्बर परम्परा में क्षेत्र की अपेक्षा मनः पर्यवज्ञानी जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग जानते देखते हैं तथा उत्कृष्ट से नीचे इस रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरिम अधस्तन क्षुद्र प्रतर तक, ऊपर ज्योतिषियों के उपरितल तक और तिर्यक् लोक में मनुष्य क्षेत्र तक जानते देखते हैं। किन्तु दिगम्बर परम्परा में क्षेत्र की अपेक्षा मनः पर्यवज्ञानी जघन्य गव्यूति पृथक्त्व और उत्कृष्ट मानुषोत्तरशैल के अन्दर के क्षेत्र का जानता है ।
5. श्वेताम्बर परम्परा में काल की अपेक्षा मनः पर्यवज्ञानी जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितना काल जानता है और उत्कृष्ट काल में भूत, भविष्यकालीन पल्योपम के असंख्यभाग जितना जानते, देखते हैं । किन्तु जघन्य से उत्कृष्ट काल अधिक होता है । दिगम्बर परम्परा में काल की अपेक्षा मनःपर्यवज्ञानी जघन्य से दो या तीन भव और उत्कृष्ट असंख्यात भवों को जानते हैं।
6. श्वेताम्बर परम्परा में भाव की अपेक्षा मनः पर्यवज्ञानी जघन्य अनन्त भावों को जानते देखते हैं, सर्वभावों के अनन्तवें भाग को जानते हैं और उत्कृष्ट उन्हीं भावों को अधिक विशुद्ध जानते देखते हैं । किन्तु दिगम्बर परम्परा में भाव की अपेक्षा से मनः पर्यवज्ञानी जघन्य (एक समय सम्बन्धी औदारिक शरीर की निर्जरा को) और उत्कृष्ट असंख्यात पर्यायों को जानता हैं। जघन्य भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट जो-जो द्रव्य ज्ञात हैं, उनकी असंख्यात पर्यायों को जानता है ।
7. श्वेताम्बर परम्परा में मनः पर्यव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम सम्पूर्ण आत्म प्रदेशों पर होता है, इसलिए द्रव्य मन सम्पूर्ण शरीर में विद्यामान है । परन्तु दिगम्बर परम्परा में मन: पर्यव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने पर विकसित आठ पंखुड़ी युक्त कमल जैसे आकार वाले द्रव्यमन के प्रदेशों में मन: पर्यायज्ञान उत्पन्न होता है। द्रव्य मन हृदय में स्थित है।